विजय कपूर
पूर्व रेवेन्यू सक्रेटरी संजय मल्होत्रा ने भारतीय रिजर्व बैंक के २६वें गवर्नर के रूप में कार्यभार संभाल लिया है। ६ साल के कार्यकाल के बाद शक्तिकांत दास १० दिसंबर २०२४ को रिटायर हो गए। हालांकि, उनका रिटायर होना और संजय मल्होत्रा को रिजर्व बैंक ऑफ इंडिया के नए गवर्नर के रूप में नियुक्ति मिलना कई महीनों पहले ही लगभग तय था, लेकिन नौकरशाही के गलियारे में यह खबर तेज थी कि शक्तिकांत दास को छह महीनों का विस्तार दिया जाएगा। यह अनुमान किस हद तक सही था, इसका अंदाजा इस बात से भी लगाया जा सकता है कि ९ दिसंबर २०२४ से पहले नए गवर्नर संजय मल्होत्रा के अप्वाइंटमेंट की तारीख तय नहीं की गई थीं।
नाफरमानी
महंगी पड़ी
हालांकि, कैबिनेट ने उनके सेलेक्शन पर मुहर काफी पहले लगा दी थी, लेकिन पिछले कुछ महीनों में वित्तमंत्री निर्मला सीतारमण की रिक्वेस्ट और वाणिज्यमंत्री पीयूष गोयल की खुलेआम आलोचना के बाद भी जब शक्तिकांत दास ने लगातार ११वीं बार भी मौद्रिक समीक्षा बैठक में रैपो रेट को कम नहीं किया, उसे जस का तस ६.५ प्रतिशत की दर पर ही रहने दिया। लगता है शायद इसी वजह से उनके विस्तार को अमली जामा नहीं पहनाया गया।
इससे केंद्र सरकार के वरिष्ठ मंत्रियों के बीच काफी बेचैनी हो गई थी, क्योंकि जुलाई से सितंबर २०२४ की अवधि में विकास दर ७ तिमाहियों में सबसे निचले स्तर ५.४ प्रतिशत पर आ गई। इस तिमाही के नतीजे आने के पहले ही पीयूष गोयल ने सार्वजनिक तौर पर दो बार रिजर्व बैंक द्वारा ब्याज दरों में कटौती न किए जाने की आलोचना की थी और वित्तमंत्री निर्मला सीतारमण ने भी अपने कई अनौपचारिक संबोधनों में रिजर्व के गवर्नर से ब्याज दरों को कम किए जाने की रिक्वेस्ट की थी, लेकिन आरबीआई के गवर्नर शक्तिकांत दास ने महंगाई के रिस्क को हवाला देते हुए किसी भी तरह की ब्याज दरों में ढील नहीं दी। हालांकि, शक्तिकांत दास १२ दिसंबर २०१८ को तीन सालों के लिए गवर्नर बनाए गए थे, लेकिन वो सरकार की गुड बुक में थे इसलिए उनके कार्यकाल को तीन साल के लिए एक्सटेंड किया गया था। इसी वजह से यह उम्मीद की जा रही थी कि २०२५ का केंद्रीय बजट डिलिवर हो जाने के बाद वे कार्यमुक्त होंगे। शक्तिकांत दास तब गवर्नर बने थे, जब नोटबंदी के बाद सरकार को असहज करते हुए तत्कालीन गवर्नर उर्जित पटेल ने इस्तीफा दे दिया था।
बहरहाल, रिजर्व बैंक ऑफ इंडिया के २६ वें गवर्नर और पूर्व रेवेन्यू सेक्रेटरी संजय मल्होत्रा भी सरकार के चहेते नौकरशाहों में से हैं। मूलरूप से राजस्थान के रहनेवाले और राजस्थान कैडर के ही १९९० बैच के भारतीय प्रशासनिक सेवा अधिकारी संजय मल्होत्रा भले अतीत के कई गवर्नरों की तरह शुद्ध अर्थशास्त्री न हों, लेकिन उन्हें आर्थिक और वित्तीय मामलों में बेहद पारंगत और प्रशासनिक कुशलता में दक्ष माना जाता है। वे भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान (आईआईटी) कानपुर से कंप्यूटर साइंस में स्नातक हैं और इसके बाद उन्होंने अमेरिका की प्रिंस्टन यूनिवर्सिटी से पब्लिक पॉलिसी में मास्टर डिग्री हासिल की है। संजय मल्होत्रा को पावर, फाइनेंस, टैक्सेशन, इन्फोर्मेशन टैक्नोलॉजी और खनन जैसे विभिन्न क्षेत्रों में काम करने का व्यापक अनुभव है। वे पिछले ३३ सालों से आईएएस हैं और राज्यों सहित केंद्र की सरकार के साथ काम करने का उनका विपुल अनुभव, उनके निर्णयों को लचीला और सर्वमान्य बनाता है। वित्त मंत्रालय में सेक्रेटरी के रूप में सर्व करने से पहले वह भारत सरकार के वित्त मंत्रालय के तहत वित्तीय सेवा विभाग में सचिव का पद भी संभाल चुके हैं। इन्हें फाइनेंस और टैक्सेशन में बेहद माहिर माना जाता है। संजय मल्होत्रा ने अब तक की सेवा में जो कई महत्वपूर्ण और बड़े काम किए हैं, उनमें एक टैक्स पॉलिसी बनाने का भी काम रहा है। माना जा रहा है कि वर्तमान में जो टैक्स रेवेन्यू में भारी भरकम बढ़ोतरी हुई है, उसका ब्लूप्रिंट इन्होंने ही तैयार किया था। इन्हें पावर, इन्फोर्मेंसन टैक्नोलॉजी और माइनिंग के क्षेत्र में भी कई बड़े और निर्णायक कदम उठाए जाने का श्रेय दिया जाता है।
मोदी के लाडले
व्यक्तिगत रूप से संजय मल्होत्रा की प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के पसंदीदा अफसरों में गिनती होती है। संजय मल्होत्रा के बारे में मशहूर है कि वे किसी भी मुद्दे पर काम करने से पहले उस पर जमकर रिसर्च करते हैं। केंद्र से पहले जब वे राजस्थान में थे, तब उन्होंने राजस्थान सरकार के सभी विभागों में काम किया था और माना जाता है कि ज्यादातर विभागों का उन्होंने कायाकल्प कर दिया था। कंप्यूटर साइंस से ग्रेजुएट होने के कारण वे हर समय डिजिटली अपडेट रहते हैं। जब २०१६ में नोटबंदी हुई थी, तब भी शक्तिकांत दास के साथ वही मुख्य मोर्चे पर थे। माना जाता है कि नोटबंदी के कारण जो नकारात्मक माहौल बन रहा था, उसे खत्म करने में और इसे सकारात्मक प्रस्तुत करने की ज्यादातर कोशिशें इन्हीं की थीं। मगर इस बार शायद उनकी असली परीक्षा काफी कठिन होनेवाली है, क्योंकि एक तरफ जहां सरकार के चहेते गवर्नर होने के बावजूद शक्तिकांत दास ने दो-दो वरिष्ठ मंत्रियों की ब्याज कटौती संबंधी बातों को मानने से इनकार करके जहां रघुराम राजन के रास्ते पर चल पड़े थे, वहीं उन्हें लगातार दूसरे साल ग्लोबल फाइनेंस ने दुनिया के टॉप बैंकर का खिताब भी दिया था। शक्तिकांत दास को सेंट्रल बैंक रिपोर्ट कार्ड २०२४ में एक बार फिर से ए ग्रेड मिला था, जिसके कारण आरबीआई के पूर्व गवर्नर को अमेरिका की राजधानी वॉशिंगटन डीसी में ग्लोबल फाइनेंस ने दुनिया के टॉप बैंकर का लगातार दूसरी बार अवॉर्ड दिया।
कहना न होगा कि दुनिया के फाइनेंस सेक्टर ने रैपो रेट पर कड़ा रवैया अख्तियार करने के उनके फैसले को सही माना। मगर सवाल यह है कि महंगाई रोकने के नाम पर बढ़ी हुई ब्याज दरों ने जिस तरह से १५ करोड़ से ज्यादा देश के मध्यवर्गीय परिवारों पर बढ़ी हुई ईएमआई का जो फंदा कस रखा है, वह भी अब बेहद खतरनाक होता जा रहा है? पिछले दो सालों से लगातार बढ़ी हुई ब्याज दरों से राहत पाने के लिए मध्यवर्गीय लोग आरबीआई की हर मौद्रिक समीक्षा बैठक के पहले उम्मीद करते हैं कि शायद अब ब्याज दरों में कुछ कटौती हो जाए, लेकिन हर बार शक्तिकांत दास कर्जदारों को निराश करते रहे हैं, लेकिन जब इसका असर बड़े पैमाने पर उद्योग और व्यापार जगत में होने लगा, तब सरकार और कॉर्पोरेट सेक्टर से उन पर दबाव बढ़ा, लेकिन उन्होंने दबाव से अप्रभावित रहते हुए रैपो रेट में कटौती नहीं की।
गौरतलब है कि रैपो रेट ब्याज दरों की वह व्यवस्था होती है, जिस दर में रिजर्व बैंक ऑफ इंडिया देश के बाकी बैंकों को लोन देती है और फिर उस दर में अपनी बढ़ोतरी करके बैंक आम लोगों और उद्योग जगत को कर्ज मुहैया कराते हैं।
आमदनी अठन्नी…
जब लगातार ब्याज दर ऊंची रहती है तो इसके कई नुकसान होते हैं। आम लोगों के हाथ में खर्च करने के लिए पैसा कम रह जाता है। क्योंकि या तो इसी दौरान बैंकों की सेविंग दरों में बढ़ोतरी हो जाने के कारण लोग पैसा बैंकों में जमा कर देते हैं या फिर जरूरतों के बावजूद ब्याज के दुष्चक्र से बचने के लिए कोई लोन नहीं लेते। इस सबका साझा नतीजा यह होता है कि बाजार में मांग कम हो जाती है और सप्लाई अधिक हो जाती है, जिससे मंदी का माहौल बन जाता है। इसके साथ ही ब्याज दरें ज्यादा होने के कारण कारोबारी अपने बिजनेस को विस्तार नहीं दे पाते। उद्योगपति नया कर्ज लेने की हिम्मत नहीं कर पाते, क्योंकि ब्याज कमर तोड़ देती है। कुल मिलाकर लगातार जब मिलनेवाले कर्ज की ब्याज दरें चाहे आम लोगों के लिए हों या कारोबारियों के लिए ज्यादा होती हैं तो विकास दर प्रभावित होती है, क्योंकि निवेश में कमी आती है और खर्च से भी लोग हाथ सिकोड़ते हैं। भारतीय अर्थव्यवस्था फिलहाल इसी दिशा की तरफ बढ़ने लगी है। शायद इस बेचैनी को नए गवर्नर समझेंगे और देश के उन करोड़ों मासिक ईएमआई देने वाले कर्जदारों को ब्याज दरों में कटौती करके राहत देंगे। यही शायद सरकार के कुछ मंत्रियों और करोड़ों कर्ज की बढ़ी हुई ब्याज दरों से परेशान लोगों की नए गवर्नर से सबसे ज्यादा उम्मीदें हैं।
(लेखक सम-सामयिक विषयों के विश्लेषक हैं)