एस. राज. ईश्वरी
राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू ने डिस्ट्रिक ज्युडिशरी के दो दिवसीय राष्ट्रीय सम्मेलन में कहा, `गांवों के गरीब लोग’ लंबी न्यायिक प्रक्रिया के वित्तीय और मानसिक तनाव के डर से अदालत जाने से हिचकते हैं। उन्होंने कहा, `इसमें कितने दिन लग सकते हैं? बत्तीस साल, १२ साल, २० साल, दो साल… हमें इस बारे में गहराई से सोचना चाहिए।’ राष्ट्रपति मुर्मू ने इसका जिक्र `ब्लैक कोट सिंड्रोम’ के तौर पर किया था।
न्यायिक प्रक्रिया की खामियों और चुनौतियों को लेकर यह नहीं कहा जा सकता कि यह पहली दफा जब इस मुद्दे को रेखांकित किया गया है। ३२ साल बाद २० अगस्त को अजमेर में सैकड़ों लड़कियों के साथ ब्लैकमेल और यौन शोषण का मामला सामने आने पर अजमेर की एक पोक्सो अदालत ने छह लोगों को दोषी करार देते हुए आजीवन कारावास की सजा सुनाई। २९ अगस्त को दिल्ली हाई कोर्ट ने एक शिकायतकर्ता को मामला वापस लेने की अनुमति दी, क्योंकि उसने अदालत में पेश होने के कारण बार-बार काम से दूर रहने के बोझ का जिक्र अहम तौर पर किया था। अदालत ने इसका उल्लेख `लिटिगेशन फटीग’ यानी `मुकदमेबाजी की थकान’ के रूप में किया। दो अलग-अलग अदालतों में ये दो मामले उस समस्या को दर्शाते हैं, जिसे राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू ने जिला न्यायपालिका के दो दिवसीय राष्ट्रीय सम्मेलन में अपने संबोधन में उजागर करने की कोशिश की।
राष्ट्रपति ने `कल्चर ऑफ एड्जर्नमेंट’ को ठीक करने के लिए समाधान का आह्वान किया है इसलिए अब समय आ गया है कि न्यायिक देरी की दीर्घकालिक समस्या पर तत्काल ध्यान दिया जाए। यह एक ऐसी व्यवस्था का परिणाम है, जो अपर्याप्त संसाधनों, विशेष रूप से जनशक्ति और हर साल बढ़ते मामलों के बोझ के चलते अपनी सीमा तक पहुंच गई है। नेशनल ज्युडिशल डेटा ग्रिड के मुताबिक, व्यवस्था के विभिन्न स्तरों पर पांच करोड़ से अधिक मामले लंबित हैं। चुनौती में योगदान देने वाले संरचनात्मक मुद्दे हैं जैसे न्यायाधीशों की संख्या में बड़ी कमी- प्रति १० लाख लोगों पर केवल १५ न्यायाधीश, यह आंकड़ा लॉ कमिशन की १९८७ में १२०वीं रिपोर्ट द्वारा अनुशंसित प्रति १० लाख ५० न्यायाधीशों से बहुत कम है। सहायक कर्मचारियों की भी कमी है, जो अदालतों के समय पर और कुशल कामकाज के लिए आवश्यक हैं। यद्यपि इस प्रणाली को सुचारु करने के प्रयास किए गए हैं जैसे अधिक न्यायालय कक्षों का निर्माण, अद्यतन ई-फाइलिंग प्रणाली तथा लोक अदालतों की तरह मुकदमे-पूर्व विवाद समाधान जैसी रणनीतियां, लेकिन इनसे कोई खास लाभ नहीं हुआ है।
यदि नागरिकों का न्यायालयों पर विश्वास फिर से स्थापित करना है तो उन मुद्दों को व्यापक रूप से संबोधित करने के लिए एक दीर्घकालिक योजना की आवश्यकता है, जो वर्षों तक मामलों को अधर में लटकाए रखते हैं। तीन चरणों वाली ऐसी ही एक योजना की रूपरेखा चीफ जस्टिस ने उसी कार्यक्रम में अपने संबोधन में प्रस्तुत की थी। कोलकाता में एक डॉक्टर के बलात्कार और हत्या तथा बदलापुर में दो बच्चियों के यौन उत्पीड़न के बाद शीघ्र न्याय की मांग फिर से जोर पकड़ रही है। हालांकि, सुधार का अर्थ है इसकी अखंडता से समझौता किए बिना व्यवस्था की कमियों को दूर करना। गति और उचित प्रक्रिया के बीच एक सावधानीपूर्वक संतुलन की आवश्यकता है, जो यह सुनिश्चित करे कि मामले निपट जाएं और न्याय हो। न्यायिक प्रणाली में इन्हीं सभी मुद्दों को नजर में रखते हुए राष्ट्रपति मुर्मू ने इसे में तत्काल सुधार की आवश्यकता की पैरवी की है। नागरिकों के `ब्लैक कोट सिंड्रोम’ से बाहर निकलने की बेहद जरूरत है और इस सरकार की प्राथमिकता में होना भी बेहद जरूरी है।