मनमोहन सिंह
देखा जाए तो दक्षिणी इटली के तटीय रिसॉर्ट बोर्गो एग्नाजिया में `जी-७ आउटरीच’ शिखर सम्मेलन यकीनन इस समूह में वर्षों से जुटाए गए नेताओं का सबसे कमजोर जमावड़ा रहा। अधिकांश मान्यवर चुनावों या घरेलू संकटों से विचलित हैं, निराश हैं या सत्ता लोलुपता से ग्रस्त हैं। इटली के प्रधानमंत्री जियोर्जिया मेलोनी को छोड़कर जी-७ में सभी नेता काफी कमजोर रहे। हम इस बात को भी नहीं भूल सकते कि इटली में जी-७ का आयोजन ऐसे वक्त में हुआ, जब दुनिया में दो-दो जंग चल रही है और बीते दिनों में अमेरिका व पश्चिमी देशों के साथ चीनी प्रतिस्पर्धा चरम पर है।
इस शिखर सम्मेलन में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी सहित १० देशों के नेताओं का स्वागत करते हुए इटली के प्रधानमंत्री मेलोनी ने कहा कि `पश्चिम बनाम बाकी’ की पुरानी कहावत से दूर जाना महत्वपूर्ण है। उस भावना ने मुख्य रूप से ब्राजील, भारत और संयुक्त अरब अमीरात जैसे ब्रिक्स देशों सहित वैश्विक दक्षिण देशों को आमंत्रित करने, ऊर्जा मुद्दों पर सात अप्रâीकी देशों के साथ आउटरीच आयोजित करने और भूमध्यसागरीय अपुलिया क्षेत्र में शिखर सम्मेलन की मेजबानी करने के इटली के निर्णय को समझाया।
इस बात को याद रखा जाना चाहिए कि जी-७ को एक समय दुनिया के सबसे विकसित लोकतंत्रों के एक गतिशील समूह के रूप में प्रतिष्ठित किया गया था, जहां राष्ट्र के प्रमुख वैश्विक वित्तीय और विकास के मुद्दों के वास्तविक समाधान निकालने के लिए साल में एक बार आमने-सामने होते थे। हालांकि, निर्माण में मंदी, कोविड -१९ महामारी और रूस-यू़क्रेन संघर्ष और पश्चिमी प्रतिबंधों के प्रभाव के चलते इसमें पहले जैसी बात नहीं रही! समूह अधिक थका हुआ दिखाई दिया है।
जी-७ के अधिकांश नेतृत्व की अस्थिर चुनावी किस्मत ने शिखर सम्मेलन में उस छवि को बेहतर नहीं बनाया। हालांकि, इस समिट में दुनियाभर की समस्याओं की फेहरिस्त को अनदेखा नहीं किया गया, लेकिन रवैया बिल्कुल जैसे-तैसे निपटा देने वाला रहा।
उन्हें हल करने के लिए कार्रवाई के लिए एक मजबूत आह्वान के रूप में कुछ नजर नहीं आया। सबसे अहम मसले पर गौर करें तो जी-७ ने यूक्रेन के लिए `सैन्य, बजट, मानवतावादी और पुनर्निर्माण समर्थन जारी रखा, लेकिन युद्ध को समाप्त करने के बारे में कोई रचनात्मक योजना नहीं बनाई गई। गाजा युद्धविराम की अपील को भी इजराइल ने स्वीकार नहीं किया है। हां, जी-७ इंडो-पैसिफिक में चीन के `इंडस्टी्रयल टारगेटिंग’ और अनफेयर प्रैक्टिस पर फोकस विशेष रूप से तीव्र था, लेकिन यह देखा जाना बाकी है कि क्या कोई सदस्य देश बीजिंग के साथ अपने महत्वपूर्ण व्यापार संबंधों को कम करेगा? भारत-मध्य पूर्व-यूरोप कॉरिडोर सहित लगभग आठ बुनियादी ढांचे गलियारों की सिफारिश की गई, जिससे कार्यान्वयन पर ध्यान देने को बल मिला, लेकिन परियोजनाओं पर चर्चा करने से बचते रहे।
भारत में जी-७ में क्या हुआ? कैसे हुआ क्या? उसके सकारात्मक नतीजे निकालें तो इन विषयों पर चर्चा करने से ज्यादा मीडिया का फोकस इसी में रहा कि मोदी की आवभगत किस तरह की गई और किस तरह नमस्ते का आदान-प्रदान किया गया! जी-७ की वर्तमान स्थिति को देखते हुए भारत ग्यारहवीं बार उपस्थित होकर इस उपयोगिता का जायजा ले सकता है। हालांकि, यह कार्यक्रम मोदी के लिए, जो अब अपने तीसरे कार्यकाल में हैं, कुछ शीर्ष नेतृत्व से मिलने का एक उपयुक्त अवसर था, लेकिन बैठकों से बहुत अधिक परिणाम नहीं निकले। महत्वपूर्ण साझेदार अमेरिका के नेताओं के साथ औपचारिक द्विपक्षीय वार्ता और रिश्तों में खटास से जूझ रहे कनाडा के बीच कोई ठोस बातचीत नहीं हुई। मोदी ने भारत के चुनावों को `लोकतांत्रिक दुनिया की जीत’, वैश्विक असमानताओं को पाटने के लिए प्रौद्योगिकी और आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस के उपयोग और वैश्विक दक्षिण, विशेष रूप से अफ्रीका के मूल्य पर ध्यान केंद्रित किया। ऐसा प्रतीत होता है कि उनमें से अधिकांश मुद्दों को जी-२० जैसे बड़े और अधिक प्रतिनिधित्व वाले प्रारूप में बेहतर ढंग से संबोधित किया जाएगा, जबकि जी-७ तेजी से बदलती वैश्विक शक्ति गतिशीलता के बीच अपनी स्वयं की पहचान और उद्देश्य की समीक्षा करने की जरूरत है। क्योंकि इतना शोर मचाने के बाद भी जी-७ के नतीजे इस लायक तो बिल्कुल नहीं हैं, जिस पर इतराया जा सकता है।