मुंबई यूनिवर्सिटी के सीनेट चुनाव में भाजपा के नेतृत्व वाली विद्यार्थी परिषद का सूपड़ा साफ हो गया है। सभी दस सीटों पर ‘युवा सेना’ की शानदार जीत से यह साफ हो गया कि राज्य के शिक्षित, स्नातकों का वोट किस ओर है। भाजपा, शिंदे गुट आदि एक साथ आए लेकिन वे शिवसेना को हरा नहीं पाए। इससे पहले, मुंबई के स्नातकों में से एक विधायक को विधान परिषद के लिए चुना जाना था। उस चुनाव में भी शिवसेना के अनिल परब रिकॉर्ड वोटों से जीते। सीनेट और स्नातक मतदार संघ में शिवसेना का मजबूत आधार है। मुंबई में युवा वर्ग ब़ड़ी तादाद में शिवसेना के साथ है। विश्वविद्यालय ‘ज्ञानतीर्थ’ हैं और पिछले दस वर्षों में इन तीर्थों को कलंकित करने का काम हुआ है। विश्वविद्यालय और शैक्षणिक संस्थान राजनीतिक अड्डे बन गए। कुलपति से लेकर शिक्षकों तक एक ही विचारधारा के लोगों की नियुक्ति की गई। यह लोकतंत्र में धक्कादायक कदम है। भाजपा ने मुंबई यूनिवर्सिटी में एक विचारधारा की घुसपैठ कराने की पूरी कोशिश की। अब दिल्ली यूनिवर्सिटी चुनाव में भी ‘भाजपा’ ताकत के साथ उतरी है और इस चुनाव की कमान खुद प्रधानमंत्री मोदी और गृहमंत्री शाह के हाथ में है। दिल्ली यूनिवर्सिटी चुनाव पर करोड़ों रुपए खर्च किए जा रहे हैं। यह आंकड़ा १०० करोड़ तक पहुंच गया है, लेकिन इतना खर्च करने के बावजूद दिल्ली यूनिवर्सिटी पर भाजपा का झंडा लहराएगा, इसके कोई आसार नजर नहीं आ रहे हैं। दिल्ली के ही जवाहर लाल नेहरू यानी ‘जेएनयू’ पर वामपंथियों का कब्जा है और भले ही भाजपा ने एड़ी-चोटी का जोर लगा दिया है, लेकिन वे ‘जेएनयू’ को वामपंथियों के कब्जे से नहीं छीन सके। अब मुंबई यूनिवर्सिटी में भी भाजपा हार गई है। हार के डर से चुनाव न कराने की नीति भी इन मंडलियों द्वारा मुंबई विश्वविद्यालय में लागू की गई थी। पिछले दो वर्षों से सीनेट चुनाव किसी न किसी वजह से रुकवाए रखा गया। मतदाता सूची रद्द की। बावजूद, शिवसेना के युवा ब्रिगेड की अनुशासित तंत्र ने फिर भी हार नहीं मानी और संघर्ष जारी रखा। जब मुंबई हाई कोर्ट ने हड़काया, तब जाकर वहां चुनाव कराने पड़े और नतीजों ने चुनाव में देरी करने वालों के गले में ही दांत डाल दिए। मुंबई यूनिवर्सिटी सीनेट पर शिवसेना की जीत शत-प्रतिशत है। १० में से ९ उम्मीदवारों ने कोटा तोड़कर भारी वोट हासिल किए। शिवसेना के आखिरी उम्मीदवार को ८६५ वोट मिले और भाजपा के सभी उम्मीदवारों को मिलाकर सिर्फ ७०६ वोट मिले। यह मुंबई के ग्रेजुएट्स के बीच भाजपा की साख है। ये वोट पैसे से नहीं खरीदे जा सके। अगर ये वोट खरीदने का थोड़ा भी मौका मिलता तो शिंदे गुट ने यूनिवर्सिटी मार्ग पर पैसों का कालीन बिछा दिया होता, लेकिन इस चुनाव में ईवीएम नहीं थीं और पैसे का इस्तेमाल नहीं हो सका। इसलिए भाजपा की अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद हार गई। मुंबई यूनिवर्सिटी की प्रतिष्ठा है। इसलिए यूनिवर्सिटी का कामकाज देखने वाला सीनेट बोर्ड भी अहम है। जैसे विधिमंडल में विधानसभा होती है। सरकार की नीतियां वहीं तय होती हैं। नए कानून और योजनाएं लागू की जाती हैं। इसी प्रकार, ‘सीनेट’ का अर्थ विश्वविद्यालय के ऊपरी निकाय के निर्वाचित सदस्य हैं, जो विश्वविद्यालय की फीस, शैक्षिक नीति, छात्र कल्याण योजनाओं, बजट पर चर्चा कर निर्णय लेते हैं। ‘सीनेट’ छात्रों का प्रतिनिधित्व करता है। सीनेट में कुल ४१ सदस्य होते हैं। इसके १० सदस्य स्नातकों में से चुने जाते हैं। १० कॉलेज प्रोफेसरों, १० प्राचार्यों, ६ संस्थान निदेशकों और ३ विश्वविद्यालय अध्यापक गुट में से सदस्य चुने जाते हैं। इसके अलावा सीनेट में विश्वविद्यालय छात्र परिषद के अध्यक्ष और सचिव सहित ४१ सदस्य होते हैं। अब स्नातकों की ओर से चुने जाने वाले दस की दस सीटों पर शिवसेना के युवाओं ने जीत हासिल की है। यह शिवसेना की युवासेना द्वारा भाजपा की अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद को दी गई मात है। महाराष्ट्र का मौजूदा वातावरण और दिशा क्या है? राज्य में युवाओं के मन में क्या उथल-पुथल है? यूनिवर्सिटी का रिजल्ट यह बताता है। विश्वविद्यालय बेरोजगारों की पैâक्ट्री बन गए हैं। हर साल लाखों युवा डिग्रियों का बंडल लेकर बाहर आते हैं। उनका भविष्य क्या है? यह अधर में है। प्रतियोगी परीक्षाओं में घोटाले हो रहे हैं। परीक्षाएं नहीं हो रही हैं और छात्र सड़कों पर विरोध प्रदर्शन कर रहे हैं। विश्वविद्यालय के युवा स्नातक को नौकरी नहीं मिल सकती। सरकारी नौकरियां खत्म हो गर्इं हैं। इसलिए अब स्नातक केवल अपनी किस्मत आजमाने के लिए राज्य और राष्ट्रीय स्तर की प्रतियोगी परीक्षाओं में बैठते हैं, लेकिन वहां घोटाले जारी हैं। विश्वविद्यालयों की ‘सीनेट’ को युवाओं की आवाज के रूप में देखा जाता है। वहां फीस, परीक्षा, पाठ्यक्रम पर चर्चा होती है और निर्णय लिए जाते हैं। शिक्षा महंगी हो गई है, लेकिन यह महंगी शिक्षा भी जीवन-यापन की दृष्टि से अप्रभावी होती जा रही है। युवा ग्रेजुएट्स को सड़क पर खड़े होकर पकौड़े तलने चाहिए। यह उनका भविष्य है, ऐसा हमारे केंद्रीय गृहमंत्री कहते हैं और स्नातकों के बीच उनके अंधभक्त उस पकौड़ाछाप लफ्फाजी पर ताली बजाते हैं। मुंबई, पुणे, नागपुर, मराठवाड़ा जैसे प्रसिद्ध विश्वविद्यालयों के ‘सीनेट’ बोर्ड को ऐसे अंधविश्वासों को बढ़ावा देने का काम नहीं करना चाहिए। स्नातकों की आवाज लाखों युवाओं की आवाज है। देश का भविष्य युवाओं के हाथ में है। उन स्नातकों के सीनेट चुनाव न होने देने की नीति हार के डर से उपजी थी। लेकिन मुंबई विश्वविद्यालय में स्नातकों ने भाजपा की थैलीशाही और निरंकुश राजनीति को हरा दिया। यह परिवर्तन की आहट है।