मौजूदा हुक्मरान इस बात का ढोल पीट रहे हैं कि उनके शासनकाल में महाराष्ट्र वैâसे देश में ‘नंबर वन’ बन गया। वे विपक्ष के इन आरोपों को झूठा कहते हैं, जिसमें विपक्ष का दावा है कि राज्य की आर्थिक स्थिति नाजुक है और सरकार की आर्थिक योजना बिगड़ गई है। लेकिन अब राज्य के वित्त विभाग की वेबसाइ ट ‘बीम्स’ पर जो जानकारी दी गई है, उसने सत्ताधारियों की सारी पोल खोलकर रख दी है। अर्थव्यवस्था की स्थिति के बारे में वे जो ढोल पीट रहे थे वह फूट गया है। यह सरकार वर्ष २०२४-२५ के बजट में प्रदत्त निधि का ५० फीसद से अधिक खर्च नहीं कर पाई है। सरकार के अलग-अलग महकमों द्वारा मात्र ४३ फीसद राशि ही खर्च की गई है। यह जानकारी खुद राज्य सरकार ने दी है इसलिए यह साबित हो गया है कि विपक्ष के आरोप झूठे नहीं हैं, लेकिन सत्ता पक्ष के ही दावों में कोई दम नहीं है। महाराष्ट्र की आर्थिक गिरावट, जो तीन साल पहले राज्य में गैर-संवैधानिक सरकार के सत्ता में आने से शुरू हुई, विधानसभा चुनावों के बाद पाशविक बहुमत की सरकार आने के बाद भी नहीं रुकी है। बेहिसाब फिजूलखर्ची, कोई भी संतुष्ट नहीं, सत्ता में तीनों दलों के मुंह तीन अलग-अलग दिशाओं में हैं, कुल मिलाकर मौजूदा सरकार की तस्वीर कुछ इस तरह है। हालांकि, ऊपर से तीनों के गले आपस में मिले हुए हैं लेकिन,
तीनों के पैर मात्र
एक-दूसरे को गिराने के लिए आपस में गुंथे हुए हैं इसलिए चाहे वह पिछली गैर संवैधानिक सरकार हो या वर्तमान बहुमत वाली सरकार, यह महाराष्ट्र के लिए वित्तीय संकट बन गई है। इसीलिए बजट प्रावधान का आधा हिस्सा भी खर्च न कर पाने की गाज महाराष्ट्र पर गिरी है। बजट का मात्र ४३ फीसदी ही उपयोग पिछले पांच साल में सबसे कम है। क्या यही गिरावट मौजूदा शासकों की नजर में महाराष्ट्र ‘नंबर वन’ है? क्या देश की कुल आय में महाराष्ट्र की हिस्सेदारी १५ प्रतिशत से घटकर १३ प्रतिशत हो जाना उन्हें विकास लगता है? राज्य पर आठ लाख करोड़ रुपए का कर्ज का बोझ बढ़ गया है। क्या उन्हें यह तीव्र आर्थिक प्रगति लगती है? अगले पांच साल में सरकार को करीब पौने तीन लाख करोड़ रुपए का कर्ज चुकाना होगा। ऐसी सरकार के लिए जो बजट प्रावधान का केवल ५० प्रतिशत ही निधि दे सकती है और इसका केवल ४३ प्रतिशत ही खर्च कर सकती है, उस सरकार के लिए यह पुनर्भुगतान बिल्कुल असंभव है। यानी नए कर्ज लिए जाएंगे और उसे चुकाने के लिए कर्ज और कर्ज का दुष्चक्र चलता रहेगा। महाराष्ट्र पर
कर्ज का पहाड़
आठ लाख करोड़ तक जाने और राजकोषीय घाटे का गड्ढा दो लाख करोड़ के आस-पास होने की आशंका है। महाराष्ट्र ऐसे अजीब वित्तीय संकट में फंस गया है और मौजूदा शासकों के पास इससे निकलने का कोई रास्ता नहीं है, क्योंकि इन्हीं आर्थिक नियोजनों की ऐसी-तैसी कर इसी मंडली ने राज्य को वित्तीय दिवालिएपन के कगार पर पहुंचा दिया है। अब कहते हैं कि वे राजस्व और पूंजीगत व्यय में ३० प्रतिशत की ‘बचत’ करेंगे। यह तो ऐसे ही हुआ नींद तब खुली जब चिड़िया चुग गई खेत। इससे फिर विकास कार्यों में देरी होगी। यदि वोट के लिए कुत्सित योजनाओं पर समय रहते ‘कटौती’ की जाती तो शासकों पर इस प्रकार ‘कटौती कर’ भरने की नौबत न आती। स्थिति इतनी भयावह होने के बावजूद सत्ताधारी दल लगातार झूठे दावे कर रहा है कि उन्होंने महाराष्ट्र को ‘नंबर वन’ बना दिया है और राज्य की आर्थिक स्थिति मजबूत है, लेकिन अब उनके ही वित्त विभाग के आंकड़ों ने इन झूठों के माथे पर बल डाल दिया है। खर्च के लिए बजट प्रावधान का मुश्किल से ५४ फीसद निधि देनेवाली और उसमें से केवल ४३ फीसद खर्च कर पांच वर्षों में व्यय के सबसे निचले स्तर पर पहुंचने वाली यह सरकार, सरकार न होकर, एक वित्तीय आपदा है, जो महाराष्ट्र पर गिरी है!