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संपादकीय: महंगाई का बोझ उस पर कमी की मार!

देश में फिलहाल सभी प्रकार की महंगाई आसमान छू रही है। उसमें भी अनाज, दाल और शक्कर की कमी होने का डर भी शामिल हो गया है। इसका अर्थ यह है कि केंद्र की मोदी सरकार को इस परिस्थिति की कितनी जानकारी है यह प्रश्न उपस्थित होता है। यह सरकार सिर्फ विरोधी दलों को तोड़ने-फोड़ने, केंद्रीय जांच एजेंसियों की दहशत पैâलाने और चुनाव की राजनीति करने में भी मशगूल है। इसलिए कुछ महीनों से महंगाई का ग्राफ बढ़ने के बावजूद सरकार ने चुप्पी साथ रखी है। टमाटर की कीमत प्रति किलो डेढ़ सौ-दो सौ रुपए से नीचे उतरने को तैयार नहीं है। टमाटर की नई फसल की खेप के बाजार में पहुंचने तक इस स्थिति में कोई बदलाव नहीं होनेवाला है, ऐसा कहते हुए सरकार ने अपनी जिम्मेदारी से पल्ला झाड़ लिया है। पिछले वर्ष असमय हुई बरसात, तूफान से हुई तबाही, हाल ही में हुई लगातार बारिश और बाढ़ का कारण बताकर लोगों का मुंह बंद किया जा रहा है। इसी बीच अब दाल सहित शक्कर का उत्पाद घटने की संभावना व्यक्त की जा रही है। केंद्रीय कृषि मंत्रालय द्वारा जारी आंकड़ों के आधार से यही स्थिति सामने आ रही है। इस साल मानसून में हुई देरी के चलते बीज बुआई पर असर हुआ है। पिछले महीने की शुरुआत में इंद्र राजा ने चारों ओर कृपा की। इस वजह से बुआई का काम पूरा हो गया। लेकिन दलहन की बुआई में लगभग नौ प्रतिशत कमी आई है। जिसके चलते पहले से पांच लाख टन की कमी झेल रहे तुअर दाल में और भी चार लाख टन की बढ़त होने की संभावना है। यदि ऐसा होता है तो तुअर दाल की भारी कमी हो जाएगी और इसकी कीमत भी आम लोगों की पहुंच से बाहर हो जाएगी। तीन-चार साल पहले भी तुअर दाल की बढ़ती कीमतों ने आम लोगों की आंखों में पानी ला दिया था। इस साल भी इसी का डर सता रहा है। केंद्रीय कृषि मंत्रालय के राष्ट्रीय खाद्य मिशन के अनुसार पिछले साल देश में ११७.८७ लाख हेक्टेयर में तुअर दाल की बुआई की गई थी। इस बार यह आंकड़ा फिसलकर १०६.८८ लाख हेक्टेयर पर पहुंच गया है। अन्य दाल और अनाज की स्थिति भी इससे कुछ अलग नहीं है। सभी का मुंह मीठा करनेवाली शक्कर के भी इस साल ‘कड़वा’ होने के लक्षण दिखाई दे रहे हैं। देश भर में शक्कर का उत्पाद लगातार दूसरे वर्ष भी घटने की संभावना है। इस साल शक्कर का उत्पाद ३१.७ दश लक्ष टन पर थम जाने की संभावना है। ऐसे में यह प्रतीत होने लगा है कि देश में दाल और अनाज के साथ-साथ शक्कर की भी कमी हो सकती है। कीमत वृद्धि को रोकने के उपाय के तौर पर केंद्र सरकार ने पहले ही गेंहू और चावल की कुछ प्रजातियों के निर्यात पर पाबंदी लगा दी है। भविष्य में चीनी पर भी ऐसी कुछ मात्रा लागू की जा सकती है। अनाज, दलहन, सब्जियां, फल और शक्कर सहित सभी फसलों का उत्पाद प्राकृतिक मौसम पर अवलंबित है, यह सही बात है। लेकिन इन उत्पादों की कमी का फटका देश की अर्थव्यवस्था और आम जनता पर वैâसे कम पड़े इसका उपाय केंद्र सरकार को खोजना चाहिए। परंतु यहां तो घोड़ा घास चरने में व्यस्त है। वर्तमान सरकार के पास कोई भी कृषि नीति नहीं होने के कारण पिछले सात-आठ साल से देश के किसान राजा पर भारी मुसीबत टूट पड़ी है। फसल ज्यादा हो या कम, यह तय है कि इससे नुकसान किसानों का होगा और फायदा व्यापारी-दलालों को होगा। मोदी सरकार के दोनों कार्यकाल में न तो फसल को सही कीमत मिली, न ही किसानों का मुनाफा दोगुना हुआ और न ही आम लोगों को महंगाई से छुटकारा मिला है। आज भी वही शुरू है। एक ओर महंगाई कम होने का ढिंढोरा पीटा जा रहा है और दूसरी ओर केंद्रीय कर्मचारियों को महंगाई भत्ता बढ़ाने का संकेत दिया जा रहा है। देश की अर्थव्यवस्था को विश्व में तीसरे स्थान पर पहुंचाने की बात कहते हुए खुद ही खुद की पीठ थपथपाते हैं लेकिन भीषण महंगाई पर हमेशा की तरह ‘मौनी बाबा’ बन जाते हैं। पहले से ही महंगाई की मार झेल रही जनता पर शक्कर, अनाज और दाल की कमी की मार के जाल में देश की जनता के फंसने का डर सता रहा है। लेकिन केंद्र के सत्ताधारी को इस बात की फिक्र कहां हैं?

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