एक तरफ राज्य को आगे बढ़ाने की गप हांकना और दूसरी तरफ महाराष्ट्र को पीछे ले जाना, ऐसा विरोधाभास शिंदे-फडणवीस सरकार के सत्ता में आने के बाद से चल रहा है। गुरुवार को बजट में किसानों के लिए योजनाएं, निर्णयों की बरसात जैसा दिखावा इस सरकार ने किया और दूसरे ही दिन अन्नदाता सहित पूरे महाराष्ट्र की गरिमा को कलंकित करनेवाला इस सरकार का कृत्य सामने आ गया। राज्य के किसानों से खाद खरीदने जाने के दौरान उनकी जाति पूछी जा रही है। जाति बताने के बाद ही उन्हें खाद दी जा रही है, ऐसी खबरें प्रकाश में आई हैं। सामने आई उक्त घटना सांगली जिले की होगी फिर भी पूरे महाराष्ट्र की तस्वीर इससे अलग नहीं होगी। क्योंकि खाद खरीदने के लिए अमल में लाया जानेवाला तंत्र सब जगह एक जैसा ही है। पहले ही किसानों को रासायनिक खाद खरीदने के दौरान कई तरह की परेशानियों का सामना करना पड़ा है। खादों की कीमतें उनके बूते के बाहर पहुंच गई हैं। कभी प्रकृति की मार तो कभी बेमौसम का प्रहार इस वजह से दो-तीन बार बुआई की नौबत किसानों पर आती है। हर बार खाद की जरूरत पड़ती ही है। किसानों के कर्जदार बनने का यह भी एक कारण है। उस पर सौभाग्य से फसल तैयार हो भी गई तो खराब मौसम और ओलावृष्टि कहर बनकर उस फसल को बर्बाद कर देती है। इससे किया गया खर्च व्यर्थ हो जाता है। उस पर खाद का कृत्रिम अभाव, कालाबाजारी इस वजह से खाद के लिए लगनेवाला अधिक पैसा ये परेशानियां तो किसानों के लिए हर साल की बात हो गई है। ये कम ही थी इसलिए ‘जाति’ की शर्त वर्तमान सरकार ने इसमें जोड़ दी है क्या? ये पूरा प्रकरण संताप बढ़ानेवाला और महाराष्ट्र की प्रगतिशील विरासत का सिर शर्म से नीचे झुकाने को मजबूर करनेवाला है। विपक्ष द्वारा इस पर सरकार को सभागृह में आड़े हाथों लेने के बाद सत्ताधारियों ने जो इस पर पर्दा डालने का प्रयास किया, वह ज्यादा ही आक्रोशित करनेवाला है। राज्य के वनमंत्री ने कहा, ‘ये मामला गंभीर है लेकिन कोई राई का पहाड़ बनाने का प्रयास न करे।’ इसमें राई को पहाड़ बनाने का सवाल उठता ही कहां है? कोई संबंध और आवश्यकता न होने के बावजूद खाद खरीदने के लिए किसानों के लिए जाति का विवरण भरना अनिवार्य किया जा रहा है। इस पर विपक्ष अथवा किसानों ने आवाज उठाई तो राई का पहाड़ कैसे हो सकता है? इस गंभीर प्रकरण का पर्दाफाश प्रसार माध्यमों ने किया। सुर्खियों में लाया तो इसे आप अफवाह फैलाना कैसे कह सकते हैं? आसमानी-सुल्तानी से त्रस्त अन्नदाता से खाद खरीदने के दौरान भी ‘तुम्हारी जात क्या?’ ऐसा पूछा जाता होगा तो इसका सात्विक संताप गलत कैसे माना जा सकता है। खाद खरीदने के दौरान जाति का विवरण भरने का तुगलकी निर्णय केंद्र सरकार का है या उस सरकार की झारी के किसी शुक्राचार्य का, इससे महाराष्ट्र का, यहां के किसानों का कोई लेना-देना नहीं है। अब कह रहे हैं कि गलती को सुधारने का निवेदन राज्य सरकार केंद्र सरकार से करनेवाली है। वह करनी ही चाहिए लेकिन असल में यह गंभीर गलती हुई ही वैâसे? खाद खरीदने के लिए आपका जो ‘ई पॉस’ तंत्र है, उसे अपडेट करने के दौरान उसमें जाति का कॉलम आया ही वैâसे? यह हरकत किसने और क्यों की? खाद खरीदी जैसे एक आम व्यवहार में जाति का विवरण घुसेड़ने की वजह क्या है? यह भूल सचमुच गलती से हुई है या जाति निहाय जानकारी जुटाने के लिए केंद्र के किसी सड़े हुए दिमाग ने यह नया ‘चोर मार्ग’ तैयार किया है? राज्य सरकार को इन सवालों का जवाब भी देना होगा। सिर्फ केंद्र से और ‘ई पॉस’ के अपडेट वर्जन की ओर उंगली दिखाकर खुद को मुक्त नहीं किया जा सकता है। एक तरफ जाति-पांति खत्म करने की बातें करना और दूसरी तरफ जातिवाद को प्रोत्साहन देना। केंद्र की सत्ता में भाजपा के आने के बाद से जाति की राजनीति जोर-शोर से शुरू हो गई है। इसी जातिवाद का छुपा एजेंडा इस ‘ई पॉस’ के माध्यम से अमल में लाया जा रहा है क्या? जाति के बंधन तोड़ो, ऐसा कहने की बजाय सरकार खुद ही जाति का लेबल लगाने के लिए जनता को मजबूर कर रही है। इसी को आपका वेगवान और गतिमान काम-काज कहा जाए क्या? ‘जाति नहीं, तो खाद नहीं’ ऐसा कोई भी निर्णय राज्य सरकार ने नहीं लिया, ऐसा स्पष्टीकरण अब सरकार की ओर से दिया गया है। परंतु मूलत: जाति बताए बगैर खाद नहीं, इस कुतर्क के पीछे का तर्कशास्त्र क्या है, यह नाहक जाति ‘पंचायत’ करने का काम किसका है? इसका खुलासा राज्य व केंद्र सरकार को करना ही होगा। क्योंकि सरकार कितनी भी लीपापोती कर रही होगी किंतु ‘जाति’ का ‘कॉलम’ सिलेक्ट किए बगैर ‘ई पॉस’ की खाद खरीदी प्रक्रिया आगे बढ़ती ही नहीं, यह वास्तविकता है। इसलिए राज्य सरकार को अपनी जिम्मेदारी से भागना नहीं चाहिए। हुई गलती का प्रायश्चित करे, यही अच्छा होगा। किसान अन्नदाता है। उस अन्नदाता की जाति क्या पूछते हो? ‘किसानी’ ही उसकी जाति और कृषि ही उसका धर्म है। पहले ही आसमानी-सुल्तानी के कारण उसके लिए धर्म का पालन करना मुश्किल हो गया है। अन्नदाता की ही दुर्दशा हो रही है। उसे सुधारना रहा एक तरफ, जाति पूछकर उसे अपमानित करने की कृतघ्नता क्यों कर रहे हो? खाद खरीदने जैसे बेहद सामान्य व्यवहार में किसानों पर ‘जाति’ की अनिवार्यता करके कौन-सी प्रगतिशीलता का ढिंढोरा आप पीट रहे हो? हर जगह जाति को ‘खाद’ पानी देने का धंधा आपके शासन में फसल को बर्बाद किए बगैर नहीं रहेगा, ये न भूलें।