मुख्यपृष्ठनए समाचारसंपादकीय : किसान आंदोलन : कान उमेठे; क्या इससे फायदा होगा?

संपादकीय : किसान आंदोलन : कान उमेठे; क्या इससे फायदा होगा?

अपनों की लताड़
देश में किसानों की समस्याओं और उसके लिए बार-बार किए जानेवाले आंदोलन को लेकर अब उपराष्ट्रपति जगदीप धनखड़ ने ही मोदी सरकार को आईना दिखाया है। एक कार्यक्रम में बोलते हुए उन्होंने दिल्ली-नोएडा सीमा पर किसानों द्वारा शुरू किए गए आंदोलन को लेकर मोदी सरकार को खूब खरी-खोटी सुनाई। किसानों को दोबारा सड़कों पर आना पड़ा है इस बाबत उन्होंने चिंता व्यक्त करते हुए कहा कि सरकार ने किसानों से संवाद क्यों नहीं साधा? उनसे चर्चा क्यों नहीं? क्या किसानों और सरकार के बीच बाड़ बनाने की कोशिश हो रही है? उन्होंने बहुत सारे सवालों की झड़ी लगा दी।
मोदी की बकैती
दस साल पहले मोदी सरकार ने किसानों को लेकर कई वादे किए थे, लेकिन वे सभी बकैती साबित हुए। इसके उलट इस सरकार की नीतियों के कारण देश के आम किसान का अब एक ही काम रह गया है आसमानी-सुल्तानी आपदाओं का सामना करना, जैसे-तैसे खेतों में फसल उगाना, खराब मौसम से होने वाले नुकसान को सहना और बची-खुची शक्ति फसलों के उचित मूल्य पाने के लिए शासकों के खिलाफ लड़ने में खर्च करना। दस साल पहले मोदी सत्ता में आए थे, कृषि को एमएसपी ‘न्यूनतम समर्थन मूल्य’ देने के लिए बहुत सारे वादे किए थे। उस समय मोदी हर भाषण में कहते थे कि वह किसानों की आय दोगुनी करेंगे और कृषि उपज को ‘गारंटी मूल्य’ देंगे, लेकिन सत्ता में आने के बाद वह आज तक इस बारे में ‘मुंह में दही जमाए बैठे’ हैं। इसके उलट, मोदी सरकार ने हर तरह से ‘कृषि सुधार कानूनों’ का दोष पीड़ित पर मढ़ने की कोशिश की, लेकिन दिल्ली सीमा पर किसानों के लंबे विरोध प्रदर्शन और उनकी एकजुटता के चलते मोदी सरकार को अंतत: इन काले कृषि कानूनों को वापस लेने के लिए मजबूर होना पड़ा।
दमनकारी सरकार
बेशक, एमएसपी से लेकर कई अन्य अधिकारों की मांगों को लेकर किसानों के जो सवाल दस साल पहले थे, वही सवाल आज भी हैं। इसीलिए हजारों किसान फिर से सड़कों पर उतरने को मजबूर हो गए हैं। लेकिन मोदी सरकार ने हमेशा की तरह दमन शुरू कर दिया है। किसान नेता राजेश टिवैâत समेत करीब ७०० आंदोलनकारी किसानों को गिरफ्तार कर लिया गया है। इसीलिए उपराष्ट्रपति जगदीप धनखड़ ने केंद्र के सत्ताधारियों को आड़े हाथों लिया है। किसानों के सड़कों पर उतरने से पहले सरकार ने उनसे बातचीत क्यों नहीं की? यही सवाल उपराष्ट्रपति ने सरकार से पूछा है। वह सही हैं, लेकिन शुरू से ही मोदी सरकार और संवाद का छत्तीस का आंकड़ा है। तीन साल पहले भी किसानों ने इन्हीं मांगों को लेकर दिल्ली बॉर्डर पर जोरदार प्रदर्शन किया था। ठंड ने कई किसानों की जान ले ली। फिर भी मोदी सरकार का दिल नहीं पसीजा, बल्कि सरकार द्वारा इस आंदोलन की ‘खालिस्तानवादी’ साबित करने के कुत्सित प्रयास किए गए। यह सच है कि सरकार ने तीन साल पहले किसान आंदोलन के दबाव में कृषि सुधार कानूनों को वापस ले लिया था, लेकिन सरकार ने किसानों से संवाद करने का शिष्टाचार न तब दिखाया, न बाद में और न अब। इसीलिए उपराष्ट्रपति जगदीप धनखड़ ने अब केंद्र सरकार के कान उमेठे हैं और हुक्मरानों को किसानों की जायज मांगों को मानने के लिए उनसे संवाद करने की याद दिलाई है।
किसानों से महत्वपूर्ण फिल्म
बेशक, क्या यह उपयोगी होगा? क्या हुक्मरानों को अपने दिखाए आईने में अपना चेहरा देखने की हिम्मत होगी? ये सवाल हैं ही। क्योंकि जब किसान अपने अधिकारों की मांग के लिए फिर से दिल्ली की सड़कों पर उतरे, तो प्रधानमंत्री मोदी और उनका मंत्रिमंडल संसद के बालयोगी हॉल में फिल्म ‘द साबरमती रिपोर्ट’ की विशेष स्क्रीनिंग का आनंद लेने में मशगूल थे! मोदी सरकार किसान विरोधी है इसका आपको और क्या सबूत चाहिए?

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