जब किसी समाज को देने के लिए कुछ नहीं होता है तो सरकार उन्हें एकाध महामंडल बनाकर दे देती है। उपमुख्यमंत्री देवेंद्र फडणवीस ने कल के राज्य के बजट के दौरान ठीक यही किया। जिन जातियों ने मांगा और जिन्होंने नहीं मांगा, उन्हें भी महामंडल के रूप में रेवड़ियां बांटी गर्इं। लिंगायत समाज के युवकों को रोजगार मिले इसके लिए जगद्ज्योति महात्मा बसवेश्वर आर्थिक विकास महामंडल, संत काशीबा गुरव युवा आर्थिक विकास महामंडल (गुरव समाज), राजे उमाजी नाईक आर्थिक विकास महामंडल (रामोशी समाज), पैलवन वैâ. मारुति चव्हाण वडार आर्थिक विकास महामंडल (वडार समाज) ऐसे कुछ नए महामंडलों की घोषणा फडणवीस ने बजटीय भाषण के दौरान की। फिर बार-बार उस समाज के आर्थिक उत्थान को इसका कारण बताया गया। अब तो ब्राह्मणों के लिए भी महामंडल का प्रस्ताव होने की बात का खुलासा भी श्री फडणवीस सरकार ने किया है। ब्राह्मण, सी. के. पी. आदि खुले वर्ग के समाज की नाराजगी दूर करने के लिए एक अलग महामंडल की स्थापना करने का राज्य सरकार का विचार है, ऐसा भी खुलासा हुआ है। वित्त मंत्री के रूप में फडणवीस ने जिस पंचामृत का वितरण किया, उसमें ये महामंडल भी शामिल हैं। क्या मराठा, ओबीसीr, मातंग जैसी अनेक जातियों के उत्थान के लिए महामंडलों की स्थापना से मूल समस्या सुलझ गई है? मूलत: ऐसे महामंडलों की स्थापना का सार इतना ही है कि यदि उच्च वर्ग का कोई व्यक्ति गरीब होगा तो उन्हें भी आर्थिक और अन्य सहूलियतों का लाभ मिलना चाहिए और यदि इस तरह के ‘लाभ’ से पिछड़े वर्ग से जो लोग अच्छी अवस्था में पहुंच गए हों, उन्हें ऐसे लाभ अन्य जरूरतमंद लोगों के लिए छोड़ देना चाहिए। माननीय शिवसेनाप्रमुख के शब्दों में कहा जाए तो ‘सीधे वित्तीय मानदंडों के आधार पर शैक्षणिक एवं अन्य सहूलियतें दी जानी चाहिए। मतलब समस्या खत्म हो जाती है। ये जाति-पांति के झमेले की जरूरत ही क्या है?’ लेकिन आज महाराष्ट्र में ‘जाति के खिलाफ जातियां’ इस तरह से खड़ी हो गई हैं मानो छत्रपति शिवराय का यह वही महाराष्ट्र है क्या? ऐसा सवाल मन में उठे बिना नहीं रहता है। देश में वास्तविक समस्या महंगाई-बेरोजगारी की ही है। जाति बनाम जाति और धर्म के खिलाफ धर्म का झगड़ा लगाने से महंगाई, बेरोजगारी की समस्या का समाधान होगा क्या? किसी दौर में छत्रपति शिवराय ने अपने हिंदवी स्वराज की स्थापना की थी। पेशवा ने तलवार की धाक पर दिल्ली के बादशाह का सिंहासन उखाड़ फेंका और अटक के पार तक अपना परचम लहराया। उन्हीं योद्धाओं के वंशजों को आज आरक्षण व सहूलियतें मांगने के लिए हाथ पैâलाना पड़ रहा है, ये शासकों की नाकामी है। अब ब्राह्मणों के लिए स्वतंत्र महामंडल बनाने से इस वर्ग के हाथ में निश्चित तौर पर क्या आनेवाला है? ब्राह्मणों में दुर्बलों को आर्थिक सहूलियतों का लाभ मिले, शिक्षा में आरक्षित जगह मिले, यह पश्चाताप राज्य सरकार को अब हुआ, इसका कारण कसबा की दयनीय पराजय है क्या? अर्थात कसबा के १३ फीसदी ब्राह्मण वर्ग में से जिन्होंने भाजपा को वोट नहीं दिया, उनकी नाराजगी की वजह निश्चित तौर पर क्या है? इसकी खोज की जाए तो सच्चाई सामने आएगी। अब तक कसबा में गिरीश बापट, मुक्ता तिलक बिना किसी प्रयास के भी निर्वाचित होते थे तथा ब्राह्मणों के साथ-साथ अन्य बहुजन समाज का वोट उन्हें मिलता था, इसे भी नहीं भूलना चाहिए। कसबा में एक ‘ब्राह्मण’ के रूप में एक निर्दलीय उम्मीदवार खड़ा हुआ और उसे कुल मिलाकर ५०० वोट नहीं मिले तथा ब्राह्मणों के लिए महामंडल हो, इस मांग के लिए यही ‘ब्राह्मण’ उम्मीदवार भाग-दौड़ कर रहे थे। इसका निश्चित तौर पर अर्थ कसबा में जातीय दृष्टिकोण से वोट नहीं दिया, जाति को नकार कर वहां वोटिंग हुई लेकिन कसबा का ब्राह्मण वर्ग नाराज है, ऐसा मानकर सरकार ब्राह्मण महामंडल के लिए प्रयास कर रही है। ब्राह्मणों के साथ-साथ ‘सीकेपी’ मतलब चंद्रसेनीय कायस्थों को भी खुश करने के लिए महामंडल की साजिश रची जा रही है। रंगो बापुजी, बाजीराव प्रभु देशपांडे, जनरल अरुणकुमार वैद्य, प्रबोधनकार ठाकरे, चिंतामणराव देशमुख ऐसे योद्धा इसी समाज ने तैयार किए व इन सभी का शिखर मतलब शिवसेनाप्रमुख बालासाहेब ठाकरे हैं। ‘मराठा-गैर मराठा, ब्राह्मण-गैर ब्राह्मण, स्पृश्य-अस्पृश्य, घाटी-कोकणी, बयान्बे कोली-छियानबे कोली, ऐसे विभाजन को मात देकर मराठियों की मजबूत एकजुटता तैयार करो,’ ऐसा मंत्र देकर मराठी भूमिपुत्रों के लिए शिवसेना की चिंगारी डालनेवाले बालासाहेब की जाति ‘सीकेपी’ थी, यह किसी को कभी पता नहीं था। उपलब्धियां कभी भी जाति पर निर्भर नहीं होती। शौर्य का भी जाति या धर्म नहीं होता, परंतु राजनीति में फिलहाल जाति व धर्म को जो महत्व मिलने लगा है, उसे देखते हुए देश में सामाजिक विघटन की शुरुआत हो गई है, ऐसा ही कहना होगा। महाराष्ट्र के मंत्रालय में जातिगत मंत्रालय व महामंडल स्थापित करने के पीछे राजनीतिक लाभ का गणित है। ऐसा करने की बजाय सर्व समाज के घटकों को एक साथ आकर औद्योगिक, आर्थिक दृष्टिकोण से महाराष्ट्र को बलवान बनाने व उससे रोजगार के, प्रगति की संधि निर्माण करना महत्वपूर्ण होगा। कोई महामंडल जाति के लिए निर्माण करके उसके खर्च के लिए सालाना ५० करोड़ के आस-पास का प्रावधान करने से उस समाज का ऐसा क्या लाभ होगा? दो-पांच लोग उस महामंडल के अध्यक्ष, उपाध्यक्ष, सदस्य बन जाएंगे और उनकी गाड़ी-घोड़े का जुगाड़, सरकारी पेंशन बन जाएगा, बस इतना ही। कदाचित कई बार ऐसे गिने-चुने दिमागों से ही इस प्रकार के महामंडलों एवं अन्य मांगों के लिए आंदोलन किए जाते हैं। अत: पेट की जाति नहीं होती, ऐसा शिवसेनाप्रमुख बालासाहेब ठाकरे ने प्रमुखता से इसीलिए कहा था। इसलिए जाति-पांति न देखते हुए उन्होंने मराठी युवकों की रोजी-रोटी की समस्या को उठाया, इसके लिए उन्होंने महामंडलों की स्थापना नहीं की परंतु आज जाति के अनुसार महामंडलों का निर्माण किया ही जा रहा है तो हर जाति-पांति का समाधान करना होगा और इस जाति युद्ध में महाराष्ट्र सामाजिक दृष्टिकोण से बंट न जाए, इसका ध्यान रखना होगा।