अगले साल अर्थात २०२४ में होनेवाले विधानसभा और लोकसभा चुनावों को देखते हुए उपमुख्यमंत्री तथा वित्तमंत्री देवेंद्र फडणवीस ने गुरुवार को अपने अर्थसंकल्पीय भाषण में अपेक्षाओं से अधिक घोषणाओं की बारिश की। दो दिन पहले राज्य के ज्यादातर हिस्सों में ओलावृष्टि एवं बेमौसम बारिश के कारण जो जबरदस्त झटका लगा था, उससे भी ज्यादा फडणवीस के भाषण में घोषणाओं का प्रभाव अधिक जोरदार था। खेतों में तैयार खड़ी फसल को बर्बाद करनेवाली ओलावृष्टि भी शरमा जाए, ऐसे शब्दों में घोषणाओं का पिटारा फडणवीस ने खोला। किसान क्या, महिला क्या, विभिन्न जाति व समाजों के लिए नए-नए महामंडल क्या, सड़कें क्या, रेलवे, हवाई अड्डे, मेट्रो के लिए निधि की घोषणा क्या? विभिन्न योजनाओं के लिए किए गए प्रावधानों और मतदाताओं को आकर्षित करे, ऐसी एक नहीं अनेक घोषणाओं की बौछार उपमुख्यमंत्री के भाषण में देखने को मिली। अर्थसंकल्पीय बजट की पूर्व संध्या पर राज्य सरकार द्वारा ही विधानमंडल में पेश की गई आर्थिक आकलन रिपोर्ट में महाराष्ट्र का जो आर्थिक पिछड़ापन जनता के सामने आया, उसका थोड़ा भी निशान फडणवीस द्वारा पेश किए गए बजट में नहीं दिखा। प्रति व्यक्ति आय के मामले में पहले स्थान पर रहा महाराष्ट्र तीसरे स्थान पर पहुंच गया है। आघाड़ी सरकार के समय १२.१ फीसदी की विकास दर का अनुमान होने के बावजूद ताजा आर्थिक सर्वेक्षण में इसे ६.१ फीसदी अर्थात न्यूनतम ही माना गया है। कृषि क्षेत्र की विकास दर और उद्योग क्षेत्र के विकास में भी गिरावट दिखने के बीच आर्थिक सर्वेक्षण रिपोर्ट पर टिप्पणी को गंभीरता से लेते हुए सरकार ने इस क्षेत्र की वृद्धि के लिए कौन सी योजना बनाई है। इसका सटीक प्रतिबिंब वित्तीय बजट में दिखाई देना चाहिए था। महाराष्ट्र सरकार पर लगभग ७ लाख करोड़ का कर्ज और उस पर खर्च होनेवाले ब्याज के पैसों का तालमेल, इस संबंध में सही तस्वीर महाराष्ट्र के समक्ष पेश न करते हुए घोषणाओं की गड़गड़ाहट उपमुख्यमंत्री ने जोरदार ढंग से की। फडणवीस की अर्थसंकल्पीय घोषणाएं और हजारों करोड़ के प्रावधान सुनकर ‘दोनों हाथों से कितना लेना है’ ऐसा कहने का मौका महाराष्ट्र की जनता को आज निश्चित तौर पर मिला होगा। माई-बाप सरकार सुखों की बरसात करनेवाले सपनों की सैर कराए, ऐसी जनता की अपेक्षा बिल्कुल भी नहीं थी। फिर भी बजट में घोषणाओं के ‘गाजर का सिर्फ हलवा’ देकर सरकार ने जनता को गुमराह ही किया है। दुख जितना हो सके कम हो जाए, बस इतनी जनता की अपेक्षा है। कविश्रेष्ठ ग.दी. माडगूलकर ने अपनी एक प्रसिद्ध कविता में ‘मांगों’ का खूब बखान किया है…
पोटापुरता पसा पाहिजे, नको पिकाया पोळी
देणार्याचे हात हजारो, दुबळी माझी झोळी
चोचीपुरता देवो दाणा, माय माऊली काळी
एक वितीच्या वितेस पुरते, तळहाताची थाळी
महाल गाद्या नकोत नाथा, माथ्यावरती छाया
गुरजेपुरती देई वसने, जतन कराया काया
अपुरेपणही ना लागे ना, पस्तावाची पाळी
देणार्याचे हात हजारो, दुबळी माझी झोळी
मराठी में लिखी उक्त कविता की पंक्तियों के अनुरूप फडणवीस द्वारा अर्थसंकल्पीय बजट में किए गए ‘छप्परफाड़’ घोषणाओं को देखते हुए महाराष्ट्र की जनता पर भी ‘मेरी कमजोर झोली’ ऐसा ही कहने की नौबत आई है। महाराष्ट्र की वास्तविक आर्थिक स्थिति जनता के समक्ष न आने देते हुए महाराष्ट्र की जनता को सपनों की दुनिया की सैर करानेवाला यह बजट है। किसानों को केंद्र की तरह ही राज्य की तिजोरी से वार्षिक ६ हजार रुपए की निधि, एक रुपए में फसल बीमा, मांग के अनुसार ड्रिप व फलबाग योजना आदि व कुछ अन्य महत्वपूर्ण घोषणाएं बजट में अवश्य हैं। परंतु दो दिन पहले बेमौसम की बारिश से राज्य की एक लाख एकड़ की फसल बर्बाद होने के बाद भी उन्हें तत्काल मुआवजा देने की उदारता वित्त मंत्री फडणवीस ने क्यों नहीं दिखाई? बजट में सत्रह सौ साठ घोषणाओं की बजाय जो फौरी जरूरत थी, उसी को क्यों टाल दिया? कृषि क्षेत्र की प्रगति व किसानों का वास्तविक कल्याण करना होगा तो अन्य किसी भी घोषणाओं की बजाय कृषि उत्पाद को खर्च आधारित समर्थन मूल्य देना यही एकमात्र मार्ग है। किसानों की आय दोगुनी करेंगे, ऐसे सिर्फ भाषण झाड़ना और कृषि उत्पादों को कौड़ी बराबर मोल देना। ताजा उदाहरण देना होगा तो शासकों की इसी दोमुंही नीति का जबरदस्त खामियाजा आज राज्य के प्याज उत्पादक किसानों को भुगतना पड़ रहा है। बुआई का खर्च भी न निकलने के कारण प्याज उत्पादक किसान आत्महत्या कर रहा है। एक तरफ प्याज व चने की खरीददारी बंद और दूसरी तरफ बेमौसम बारिश के प्रहार से खेतों में रखी फसल की बर्बादी, ऐसे सुल्तानी व आसमानी संकट की मार किसानों पर पड़ रही है। राज्य के वित्तीय बजट में उपमुख्यमंत्री व वित्त मंत्री फडणवीस ने किसानों के लिए घोषणाओं की बारिश की लेकिन उससे ज्यादा कृषि माल व तैयार होनेवाले प्रत्येक दाने की समय पर खरीदी और किफायती दाम देना, ये वचन बजट में दिया गया होता तो अन्य पचास घोषणाओं की जरूरत ही नहीं होती। लेकिन सत्ता के लिए सुविधा के अनुसार ‘खोकों’ का इस्तेमाल करना और किसान व जनता के लिए चुनावी साल में उतनी ही घोषणाओं का सुकाल करके जनता को सुखों के स्वप्न दिखाना, ऐसी नीति है। गुरुवार को विधानमंडल में पेश किया गया चुनावी बजट यही कहता है!