सरसंघचालक मोहन भागवत ने दावा किया है कि भारत एक हिंदू राष्ट्र है। राजस्थान के एक कार्यक्रम में संघ स्वयंसेवकों को संबोधित करते हुए सरसंघचालक ने हिंदू राष्ट्र का उच्चारण किया। इसके अलावा उन्होंने हिंदू कौन है, हिंदुओं की समग्रता, एकता आदि मुद्दों पर टिप्पणी करते हुए यह भी स्पष्ट किया कि हिंदू शब्द का इस्तेमाल देश में रहने वाले सभी भारतीय समाज के लिए किया जाता था। यह सच है कि सरसंघचालक ने संपूर्ण भारतीय समाज को हिंदू शब्द के अधीन लाने का प्रयास किया है; लेकिन भारत एक हिंदू राष्ट्र है, सरसंघचालक को अचानक ऐसा खुलेआम दावा करने की जरूरत क्यों महसूस हुई? ये सवाल मुंह बाए खड़ा है। उन्होंने यह भी क्यों कहा कि आत्मरक्षा के लिए हिंदू समाज को संगठित होने की आवश्यकता है? सरसंघचालक को एक ही मंच से ये दोनों बातें कहने की जरूरत क्यों महसूस हुई? ‘हालांकि हिंदू शब्द बाद में आया, भारतीय प्राचीन काल से ही यहां रहते आ रहे हैं। हिंदू सबको समाहित करते हैं। भारत में रहने वाले सभी को हिंदू संबोधित किया गया,’ ऐसे ‘उदार’ विचार व्यक्त करने वाले सरसंघचालक जब हिंदुओं को आत्मरक्षा के लिए संगठित होने की जरूरत पर जोर देते हैं तब आम जनता के समक्ष एक सवाल खड़ा हो सकता है कि आखिर वे कहना क्या चाहते हैं। क्योंकि उनके ये दोनों वाक्य परस्पर तौर पर प्रश्नवाचक साबित होते हैं। पिछला वाक्य बाद वाले वाक्य से बाधित होता है। ये दोनों वाक्यांश जाने-अनजाने भारत के हिंदू और गैर हिंदू संघ परिवार के परंपरागत विभाजन पर उंगली रखते हैं। क्योंकि यदि ‘हिंदू’ शब्द में संपूर्ण भारतीय समाज समाहित है तो फिर वह कौन सा हिंदू समाज है जिसे ‘आत्मरक्षा के लिए स्वयं को संगठित करने की आवश्यकता है?’ किसे किससे खतरा है? किसे आत्मरक्षा और संगठन की जरूरत है? एक ओर व्यापक जैसे विचार प्रस्तुत किया जाता और दूसरी ओर देश को हिंदू और गैर-हिंदू में विभाजित करने के अपने पारंपरिक एजेंडे को भी घुसाने का प्रयास किया जाता है। भाषा, प्रांत, जाति के आधार पर मतभेदों और विवादों को किनारे रख एक साथ आने के लिए कहा जाता है, सभी के हितों की रक्षा करने वाले और सौहार्दपूर्ण वातावरण वाले समाज की जरूरत जैसे आदर्शवादी विचारों की वकालत की जाती है और उसी वक्त हिंदू राष्ट्र का उच्चारण कर हिंदुओं को आत्मरक्षा के लिए एकत्र आने का नारा भी लगाया जाता है। विपक्ष ने आलोचना की है कि सरसंघचालक के ये बयान धार्मिक विभाजन को बढ़ावा देने वाले हैं। देश में मोदी सत्ता आने के बाद से देश में सांप्रदायिक और धार्मिक सद्भावना इस तरह चरम पर हिचकोले खा रही है ऐसा इसके पहले कभी नहीं हुआ था। हिंदू बनाम मुस्लिम माहौल को सुलगाए रखके अपने राजनीतिक रोटी को सेंकने का एजेंडा दिल्ली से लेकर गल्ली तक चलाया जा रहा है। मणिपुर जैसे संवेदनशील सीमावर्ती राज्य को वर्षों तक जातीय आग में जलते रखा गया है। प्रधानमंत्री इस बारे में न तो बात कर रहे हैं और न ही वहां जाकर हिंसा से पीड़ित मणिपुर के लोगों को दिलासा दे रहे हैं। ऐसे में सरसंघचालक द्वारा ‘भारत एक हिंदू राष्ट्र है’, ऐसा सार्वजनिक रूप से यह दावा करने के पीछे आखिर वजह क्या है? आठ-दस दिन पहले नागपुर के एक कार्यक्रम में सरसंघचालक मोहन भागवत ने कहा था, ‘विविधता को मिटाकर जबरदस्ती एकता को थोपने की कोशिश आगे बढ़ने का रास्ता नहीं है। विविधता में रहते हुए हमें यह समझना चाहिए कि हम एक हैं।’ ऐसे महान विचारों को प्रस्तुत करने वाले वही सरसंघचालक अब राजस्थान में संघ स्वयंसेवकों के सामने कहते हैं कि भारत एक हिंदू राष्ट्र है और आत्मरक्षा के लिए हिंदुओं को संगठित होना चाहिए। हालांकि, यह सच है कि देश में हिंदू बहुसंख्यक हैं, विविधता में एकता ही भारत की असली पहचान है। लेकिन पिछले दस वर्षों में देश को सांप्रदायिक और धार्मिक अस्थिरता के कगार पर धकेल दिया गया है। इस अस्थिरता को समावेशिता की डोर से ही दूर किया जा सकता है। ऐसे समय में सरसंघचालक को ‘हां, भारत एक हिंदू राष्ट्र है’ ऐसा उच्चारण करने की जरूरत अभी ही क्यों हुई? ये देश के सामने सवाल है।