मुख्यपृष्ठनए समाचारसंपादकीय : वो मजबूत महाराष्ट्र ...क्या आज रह गया है?

संपादकीय : वो मजबूत महाराष्ट्र …क्या आज रह गया है?

देश पर युद्ध के बादल मंडरा रहे हैं, इसी बीच आज ६५वां महाराष्ट्र दिवस मनाया जा रहा है। जब भी देश पर कोई संकट आया और महाराष्ट्र उस संकट से निपटने के लिए आगे न आया हो, ऐसा कभी हुआ नहीं। लेकिन क्या आज वो मजबूत, स्वाभिमानी महाराष्ट्र कहीं नजर आता है? बेशक, आज भी कुछ लोगों को लगता है कि वे खुद सह्याद्रि हैं। वे हिमालय की मदद करने का दिखावा करते हैं, लेकिन असल में वे दिल्ली को नमन करने के लिए ही वहां पहुंचते हैं। उन्होंने महाराष्ट्र की अवस्था दिल्ली के रास्ते का ‘पाय-दान’ जैसी बना रखी है। इसे इस मर्‍हाटी राज्य का दुर्भाग्य ही कहा जाना चाहिए। पहलगाम हमले के बाद महाराष्ट्र में कश्मीर से पर्यटकों को वापस लाने के लिए महाराष्ट्र के सत्तारूढ़ दलों के बीच छिड़ी श्रेय लेने की शर्मनाक लड़ाई पूरे महाराष्ट्र ने देखी। फिर जैसे कि अपनी ही जेब से पैसा खर्च कर पर्यटकों को वापस ला रहे हैं, ऐसा नकली ताव कुछ लोगों ने दिखाया। हालांकि, पर्यटकों को सरकारी खर्च पर ही वापस लाए जाने का भंडाफोड़ हो गया और डींग हांकने वालों के मुंह बंद हो गए। पहलगाम हमले में महाराष्ट्र के छह पर्यटकों की मौत हो गई। ऐसे में पूरा महाराष्ट्र और देश शोक में रहने के दौरान महाराष्ट्र सरकार के भीतर ही श्रेय लेने की होड़ मानो बेशर्मी की पराकाष्ठा थी। आज जब मराठी मुल्क में महाराष्ट्र दिवस मनाया जा रहा है, तो इन समारोहों में सही मायने में महाराष्ट्र धर्म की अलख जगानी चाहिए। लेकिन क्या वाकई इस राज्य में महाराष्ट्र धर्म का पालन हो रहा है, यह सवाल महाराष्ट्र के शासकों को खुद से पूछना चाहिए। अर्थात महाराष्ट्र धर्म को निस्तेज करने के लिए जिन्होंने साजिशें रचीं, विश्वासघात किया और महाराष्ट्र के स्वाभिमान को दिल्ली वालों के चरणों में गिरवी रख दिया, उनसे ऐसी अपेक्षा करने से भला क्या हासिल होगा? असल में
महाराष्ट्रधर्म क्या है
यही ये मंडली दिल्ली की गोद में बैठकर भूल गई है। महाराष्ट्रधर्म की अपेक्षा सत्ता, पद और कुर्सियां को सम्मान का स्थान मिलेगा तो फिर और क्या होगा? गद्दारी, बेईमानी और खाने की थाली में छेद करनेवाली बेईमानी की विकृति का महाराष्ट्रधर्म में कभी भी स्थान नहीं था। लेकिन इधर बीच महाराष्ट्र में जहां ‘गद्दारी’ और ‘खोके’ जैसे शब्दों को ही राजमान्यता मिली है, वहां महाराष्ट्रधर्म के मधुर गीत कौन गाएगा? महाराष्ट्रधर्म से बेईमानी करके इसी राज्य के कुछ लोग दिल्ली के ‘मिंधे’ बन गए हैं। इन घरभेदियों ने पहले दिल्ली के इशारे पर चालें चलीं और महाराष्ट्र और मराठी जनता के विश्वास को धोखा दिया। उसके बाद मराठी जनता की ईमानदार भावना और महाराष्ट्र के जनमत को झुठलाकर कृत्रिम बहुमत के बल पर दिल्ली की ताल पर नाचनेवाली और जनता की अनचाही कृत्रिम सरकार महाराष्ट्र की गर्दन पर बैठा दी। यह महाराष्ट्र के स्वाभिमान पर किया गया प्रहार ही था। यह महाराष्ट्रद्रोह ही था और महाराष्ट्र के लोगों को इसे कभी नहीं भूलना चाहिए। वास्तव में महाराष्ट्र दिवस के अवसर पर मराठी जनता को यह संकल्प लेना चाहिए कि महाराष्ट्र के साथ बेईमानी करने वाले गद्दारों और उनका इस्तेमाल करने वाले दिल्ली वालों का हिसाब वैâसे चुकता किया जाए। यही महाराष्ट्रधर्म है! अच्छा, बेईमानी करके जो सत्ता हासिल की, उसका उपयोग भी यह मंडली क्या जनता के कल्याण के लिए कर रही है? ऐसा भी नहीं है। चुनावों से पहले उन्होंने लाडली बहन योजना की घोषणा करके महिलाओं को १,५०० रुपए प्रतिमाह दिए। ‘हम फिर से चुने गए तो लाडली बहनों को प्रतिमाह २,१०० रुपए देंगे’, यह वादा करके यही शासक फिर से सत्ता में आए। लेकिन अब इस राशि को २,१०० से घटाकर ५०० रुपए करने की कोशिशें हो रही हैं। इसके अलावा चुनाव के बाद लाडली बहनों की संख्या में भी भारी कमी कर दी गई। ‘गरज का ध्यान रखो और मतदाताओं को मरने दो’ यही हाल हो गया है। धोखेबाज भाइयों द्वारा बहनों के साथ किया गया यह विश्वासघात है। इस विश्वासघात का महाराष्ट्रधर्म में कोई स्थान नहीं है। छत्रपति शिवराय ने जिस औरंगजेब के साथ जीवन भर युद्ध किया और
उसकी कब्र
आखिरकार महाराष्ट्र में ही बनानी पड़ी, उस औरंगजेब की कब्र खोदकर छत्रपति शिवराय का और मराठों के शौर्य के इतिहास को ही मिटाने का प्रयास हाल में ही महाराष्ट्र में हुआ। औरंगजेब को जहां गाड़ा गया, वह स्थान शिवराय की बहादुरी का प्रतीक ही है। लेकिन सत्ता में बैठे महाराष्ट्रद्रोहियों ने कब्र के जरिए शिवराय के इस इतिहास को ही मिटाने की साजिश रची। यह भी महाराष्ट्रधर्म के साथ किया गया विश्वासघात ही था। महाराष्ट्रधर्म को भूल चुकी इसी मंडली ने उधर बीच महाराष्ट्र में हिंदी भाषा की सख्ती करने का तुगलकी फरमान जारी किया। हालांकि, मराठी जनता के आक्रोश के कारण अब यह पैâसला वापस ले लिया गया, लेकिन इससे शासकों की मराठी के प्रति नफरत ही सामने आ गई है। जहां महाराष्ट्र के उद्योग-धंधे गुजरात ले जाए जा रहे हैं, महाराष्ट्र के बेरोजगार युवाओं को उनकी रोजी-रोटी से वंचित किया जा रहा है, वहीं दिल्ली और गुजरात के आगे दुम हिलानेवाले स्वाभिमानशून्य राजनेता आज महाराष्ट्र की सत्ता में बैठे हैं। भ्रष्टाचार और ‘खोके’ की संस्कृति के कारण आज महाराष्ट्र के सिर पर सा़ढे नौ लाख करोड़ का कर्ज चढ़ गया है। किसानों का तो कोई ‘वाली’ ही नहीं बचा है। पिछले सालभर में २,७०० से ज्यादा किसानों ने महाराष्ट्र में आत्महत्या की। एक उद्यमशील और उन्नत राज्य के तौर पर कभी महाराष्ट्र की पहचान हुआ करती थी। लेकिन इस ‘भूषण’ को मिटाकर महाराष्ट्र को कर्ज और किसान आत्महत्याओं वाले राज्य का ‘कलंक’ मिल रहा है, तो यह बुरी बात है। ‘राकट देशा, कणखर देशा…’ ऐसा महाराष्ट्र का वर्णन हम महाराष्ट्र गीत में पढ़ते हैं। लेकिन यह गौरव केवल कविता तक सीमित और मर्यादित होने से नहीं चलेगा। दिल्ली के आगे दुम दबानेवालों ने हिमालय की मदद के लिए दौड़नेवाले सह्याद्रि को कमजोर कर दिया है। क्या पहले वाला वो मजबूत महाराष्ट्र आज रह गया है? अगर हमें किसानों के पसीने से और १०७ शहीदों के खून से मन में बनी महाराष्ट्र की प्रतिष्ठा को बनाए रखना है तो मराठी जनता को एक बार फिर संघर्ष करना ही होगा। महाराष्ट्रधर्म को जगाना ही होगा!

अन्य समाचार