देश के लिए सर्वोच्च न्यायालय ही एकमात्र उम्मीद की किरण है। अन्यथा हमारे देश में सभी एजेंसियां सत्ताधारियों की गुलाम ही बन गई हैं। यह आशा की किरण दम तोड़ते लोकतंत्र पर एक बार फिर पड़ी। सर्वोच्च न्यायालय ने गुरुवार को चुनाव आयोग के संदर्भ में बड़ा निर्णय सुनाया। मुख्य चुनाव आयुक्त ‘सीईसी’ और चुनाव आयुक्तों की नियुक्ति के लिए एक पैनल तैयार करने का पैâसला सर्वोच्च न्यायालय ने सुनाया। इसलिए चुनाव आयुक्तों की नियुक्ति में मनमानी व ‘मेरी मर्जी’ की प्रथा पर कुछ हद तक लगाम लगेगी। एक समिति राष्ट्रपति के माध्यम से नियुक्त की जाएगी और उस समिति में प्रधानमंत्री, विपक्ष के नेता और मुख्य न्यायाधीश शामिल होंगे। बिगड़ते जा रहे चुनावी सिस्टम का शुद्धिकरण करने के लिए सर्वोच्च न्यायालय के निर्णय से लोकतंत्र बलवान बनेगा। कानून का राज लोकतंत्र की बुनियाद होती है, परंतु चुनाव आयोग द्वारा ही चुनाव प्रक्रिया की पारदर्शिता और निष्पक्षता न रखे जाने से कानून का राज धराशायी हो जाएगा। ऐसा न्यायालय की खंडपीठ ने कहा है। लोकतंत्र में चुनावों की पवित्रता को बरकरार रखना चाहिए, अन्यथा इसका परिणाम विनाशकारी होता है। चुनाव आयोग को संवैधानिक दायरे में रखकर काम करना चाहिए। वह अन्यायकारी पद्धति से बर्ताव नहीं कर सकता है। ऐसा निरीक्षण न्या. के.एम. जोसेफ की अध्यक्षता वाली खंडपीठ ने दर्ज कराया है। न्या. जोसेफ और उनके साथ के अन्य न्यायाधीशों ने देश के लोकतंत्र पर उपकार किया है और भावी पीढ़ियों को इसका स्मरण हमेशा रहेगा। वर्तमान चुनाव आयोग के संदर्भ में कुछ न कहा जाए, ऐसे ही हालात हैं। रीढ़ हीन व सत्ताधारियों के पैरों में लोटनेवाले प्राणियों जैसी उसकी अवस्था है। चुनाव आयोग के निर्णय की प्रक्रिया भ्रष्ट हो गई है और निर्णय भ्रष्ट हो, इसके लिए विवादित व्यक्तियों की नियुक्ति सरकार करती है। इस संदर्भ में एक महत्वपूर्ण याचिका वरिष्ठ अधिवक्ता प्रशांत भूषण ने दायर की और इस पर जोरदार ढंग से जिरह हुई। सर्वोच्च न्यायालय ने सरकार से पूछा है कि संविधान के अनुच्छेद-३२४ के अनुसार संविधान द्वारा नियुक्तियों के लिए कानून बनाने को कहा गया है। इसके बावजूद ऐसा कानून अब तक क्यों नहीं बनाया गया? जब तक संसद में ऐसा कानून नहीं बनता, तब तक तीन सदस्यों वाली समिति चुनाव आयुक्त को नियुक्त करेगी और उस समिति में विपक्ष के नेता का समावेश होगा। इसका मतलब ऐसा भी हो सकता है कि वर्तमान चुनाव आयोग संविधान की संकल्पना के अनुसार नहीं बनाया गया है तथा मोदी-शाह ने अपना राजनीतिक स्वार्थ साधने के लिए वहां अपने पसंद के व्यक्ति को नियुक्त किया है। मनचाहा परिणाम उसके माध्यम से प्राप्त कर लिया। कई परिणामों की ‘स्क्रिप्ट’ बाहर से तैयार होकर आई और इस पर चुनाव आयोग ने सिर्फ अंगूठा दर्शाया। शिवसेना और धनुष-बाण मिंधे गुट को बेचने का जो निर्णय चुनाव आयोग ने दिया व तमाम निर्देश व कानूनों को पैरों तले रौंदकर ही दिया गया। विधान मंडल दल के ४० विधायकों ने पार्टी छोड़ दी, इस वजह से पूरी शिवसेना धनुष-बाण चिह्न के साथ बागियों की जेब में डालना यह अन्याय है। लोकतंत्र की हत्या है, परंतु चुनाव आयोग ने राजनीतिक मालिकों के लिए ‘कॉन्ट्रेक्ट कीलर’ पद्धति से काम करके अपनी संस्था भी ‘मिंधी’ ही है, ऐसा दिखा दिया। लेकिन सर्वोच्च न्यायालय के आज के निर्णय से सब कुछ साफ हो गया है। लोकतंत्र का मुखौटा लगाकर निरंकुशता का नंगा नाच करनेवाले मुखौटे टूटकर गिर गए। देश के चुनाव स्वछंद माहौल में, स्वतंत्र स्वाभिमान के साथ हों, इसके लिए हमारा चुनाव आयोग है। चुनाव आयोग की निष्पक्ष भूमिका ही हमारे लोकतंत्र का प्राण है। इस प्राण का अब दम घुट रहा है। अब तक चुनाव आयोग, सरकार की कठपुतली के रूप में ही काम कर रहा था। अपवाद सिर्फ श्री शेषन हैं। बाकी सारे घोड़े बारह टके के ही हैं! कई चुनाव आयुक्तों को सेवानिवृत्ति के बाद सरकारी पद दिए गए। ये घातक और गंभीर है। शेषन के काल में एक आदर्श आचारसंहिता लागू हुई। उसका पालन प्रधानमंत्री को भी करना पड़ता था। आज प्रधानमंत्री चुनाव प्रचार में भाग लेते समय पूरा लाव-लश्कर, सरकारी तंत्र का इस्तेमाल करके लोगों को रेवड़ियां बांटते हैं। उन्हें साधारण जवाब भी नहीं पूछा गया। एकाध चुनाव स्वतंत्र रूप से हो, इसके लिए संवैधानिक पद पर बैठे व्यक्ति पर बंधन होना आवश्यक है। महाराष्ट्र में कसबा, चिंचवड के उपचुनाव हुए। इसमें क्या तस्वीर दिखी? मुख्यमंत्री, गृहविभाग संभालनेवाले उपमुख्यमंत्री, उनका मंत्रिमंडल निर्वाचन क्षेत्र में डेरा डालकर बैठा है और पूरे सरकारी तंत्र का इस्तेमाल किया गया। कसबा में पुलिस प्रशासन का इस्तेमाल करके भरपूर पैसे बांटे गए। इसे चुनाव आयोग ने संज्ञान में नहीं लिया क्योंकि सभी सरकारी मिंधे ही बन गए हैं। इस पार्श्वभूमि में सर्वोच्च न्यायालय द्वारा मुख्य चुनाव आयुक्त की नियुक्ति के संदर्भ में लिया गया निर्णय राष्ट्रीय हित को व लोकतंत्र को बल देनेवाला है। केंद्रीय चुनाव आयोग के निर्वाचन पद्धति के अनुसार राज्य के चुनाव आयुक्तों के नियुक्ति की प्रक्रिया में भी वही दिशा देनी होगी। चुनाव आयोग में राजनीति ऊपर से नीचे व नीचे से ऊपर विष की तरह फैल गई है, जिनसे संविधान के अनुसार काम करने की अपेक्षा है, उन तमाम संस्थाओं को हथियाकर एक ही विचार वाले लोगों को नियुक्त कर उन संस्थाओं के निजीकरण का यह दांव है। चुनाव आयोग को इसी ढंग से लीलकर डकार मारने का दांव सफल होने के दौरान सर्वोच्च न्यायालय की संवैधानिक पीठ ने हिम्मत दिखाई। इसके लिए देश उनका सदैव ऋणी रहेगा!