देश में नौकरियों की समस्या दिन-ब-दिन जटिल होती जा रही है। इसके लिए मोदी सरकार की पिछले दस साल की नीतियां जिम्मेदार हैं। ग्रेजुएट्स के हाथों में कागजात के पुलिंदे तो हैं, लेकिन हाथों में कोई काम नहीं है। अभी भी महाराष्ट्र समेत कई राज्यों में नौकरियों में आरक्षण को लेकर संघर्ष चल रहा है। ऐसे माहौल में पड़ोसी राज्य कर्नाटक ने स्थानीय लोगों को नौकरी देने का बड़ा फैसला लिया था। कर्नाटक कैबिनेट ने निर्णय लिया, जिसके मुताबिक कर्नाटक में सभी निजी उद्योगों में कन्नडिगाओं के लिए ५० से ७० फीसदी सीटें आरक्षित करने के लिए एक विधेयक पारित किया गया। साथ ही मुख्यमंत्री सिद्धारमैया ने यह भी घोषणा की थी कि कर्नाटक में सी और डी वर्ग की १०० प्रतिशत नौकरियां केवल कन्नड़ लोगों के लिए आरक्षित होंगी। इन नौकरियों में किसी और की घुसपैठ नहीं चलेगी। अब इस विधेयक पर विवाद के बाद कर्नाटक सरकार ने फिलहाल, भले ही विधेयक को स्थगित कर दिया है, लेकिन कर्नाटक सरकार के दोनों पैâसले चिंतन करने लायक हैं। इस फैसले से दो सवाल खड़े हो गए हैं। कर्नाटक सरकार को क्यों लेना पड़ा ये फैसला? यह पहला सवाल है और क्या कर्नाटक में इतनी नौकरियां उपलब्ध हैं? यह है दूसरा सवाल। अपने-अपने राज्य में स्थानीय लोगों को रोजगार में कम से कम ८० प्रतिशत प्राथमिकता दी ही जाए। पचास साल पहले जब शिवसेना ने मुंबई में यह आंदोलन शुरू किया था तो शिवसेना की इस भूमिका का पुरजोर विरोध करनेवाले दक्षिण के राज्य ही थे। उन्हीं लोगों ने यह बिगुल बजा दिया था कि देश एक है, इस तरह के पैâसले से राष्ट्रीय एकता खतरे में पड़ जाएगी और यह तो साफ तौर पर प्रांतवाद है। मुंबई महाराष्ट्र की राजधानी है, लेकिन मुंबई में नौकरियों पर दक्षिणी लोगों का दबदबा था। भले ही मराठी युवक घर का मालिक था, लेकिन वह हमेशा सीढ़ियों पर खड़ा होकर इंतजार करता नजर आता था, लेकिन शिवसेना की स्थापना के बाद यह तस्वीर काफी बदल गई। नौकरियों के सभी क्षेत्रों में मराठी लोगों को हक के साथ प्राथमिकता मिलने लगी। फिर भी मुंबई-महाराष्ट्र में परप्रांतियों के झुंडों का आना नहीं रुका। अब कर्नाटक में कन्नडिगाओं को प्राथमिकता देने के फैसले के बाद किसी भी दल ने ज्यादा हंगामा नहीं किया, लेकिन शिवसेना के मामले में इस फैसले से संसद में हंगामा खड़ा हो जाता। आखिरकार, शिवसेना की ही भूमिका अब हर राज्य की भूमिका बनती जा रही है। कर्नाटक ने अपने कन्नड़ लड़कों के लिए निजी क्षेत्र में आरक्षण रखा क्योंकि रोजगार अब एक ज्वलंत मुद्दा बन गया है। बिहार, उत्तर प्रदेश, ओडिशा, गुजरात जैसे राज्यों के झुंड आजीविका के लिए मुंबई, बंगलुरु, कोलकाता, हैदराबाद जैसे शहरों में जा रहे हैं। इससे इन शहरों का भूगोल और अर्थशास्त्र व जीवशास्त्र अस्त-व्यस्त होकर चरमरा गया है। बड़े-बड़े दावे किए जाते हैं कि गुजरात में खूब विकास हुआ है, लेकिन चार दिन पहले गुजरात की एक भयावह तस्वीर सामने आई। पचास सीटों की भर्ती के लिए पचास हजार युवाओं का झुंड इस कदर टूट पड़ा कि उस इमारत की लोहे की रेलिंग टूट गई। एयर इंडिया को मुंबई में हैंडीमैन पद के लिए २,२१६ रिक्तियां भरनी थीं, लेकिन करीब तीस हजार बेरोजगार युवा इसके लिए उमड़ पड़े। ये हैं महाराष्ट्र के हालात। लाचार मुख्यमंत्री शिंदे ने ग्रेजुएट्स के खाते में ६००० जमा करने का जुमला जाहिर किया। लेकिन इन बच्चों को नौकरी चाहिए, भीख नहीं। शासकों को यह छह या दस हजार का दान अपने घर के बच्चों को देना चाहिए और उनसे कहना चाहिए कि वे इस छह से दस हजार में से पांच लोगों का घर चलाएं। महाराष्ट्र कभी देश में रोजगार देनेवाला प्रदेश था। आज महाराष्ट्र की हालत दिल्ली के पायदान की तरह हो गई है। महाराष्ट्र के सभी बड़े उद्योग, वित्तीय संस्थान, नौकरियां गुजरात में स्थानांतरित हो गई हैं और लाचार शिंदे सरकार १२वीं पास और स्नातकों को ५-१० हजार मासिक भत्ता देकर उन्हें चुप करा रही है। प्रधानमंत्री मोदी और गृहमंत्री अमित शाह अच्छी चीज महाराष्ट्र से गुजरात ले जा रहे हैं। वे ऐसा ही दक्षिणी राज्यों के साथ कर दिखाएं तब उन्हें पता चलेगा कि प्रांतीय स्वाभिमान की आग क्या होती है। उन्होंने सबसे पहले छत्रपति शिवराय के महाराष्ट्र को कमजोर किया। उन्होंने उनके हथियार छीन लिए, उनके स्वाभिमान पर बेईमानी की और फिर महाराष्ट्र में खुली लूट शुरू कर दी। चूंकि महाराष्ट्र के वर्तमान शासक ही षंड हैं तो और क्या हो सकता है! आज वे खुलेआम नौकरियां ले जा रहे हैं। कल मुंबई ले जाएंगे। महाराष्ट्र पर आठ लाख करोड़ का कर्ज है। उन्होंने मुंबई महानगरपालिका के एक लाख करोड़ की फिक्स डिपोजिट भी तोड़ खाई। मुंबई का सारा इंफ्रास्ट्रक्चर ध्वस्त हो गया। देश की आर्थिक राजधानी की इस बरबादी के बाद रोजगार कहां से आएगा? फिर भी ऐसा माहौल है कि नौकरियों में आरक्षण को लेकर महाराष्ट्र जलेगा और भड़केगा। इसलिए कर्नाटक में भूमिपुत्रों के मामले में १०० प्रतिशत नौकरियां आरक्षित करनेवाला निर्णय दिलासा देनेवाला लगना स्वाभाविक था। पचास साल पहले शिवसेनाप्रमुख द्वारा महाराष्ट्र में रोपा गया विचार पड़ोसी राज्य कर्नाटक में फल-फूल रहा है। जो कन्नड़ मुल्क में हुआ क्या वह महाराष्ट्र में होगा? स्टायपेंड की भीख नहीं; हक की नौकरी चाहिए, क्या युवा इस विचार से उठ खड़े होंगे?