संजय श्रीवास्तव
अठारहवीं लोकसभा के लिए अभी तक तीन चरणों का मतदान हो चुका है। इन तीन चरणों में किसका पलड़ा भारी रहा, कौन-कौन गरज-बरस के फुस्स हुआ, इसका असली पता तो ४ जून को लगेगा, जब मतगणना के लिए ईवीएम खुलेंगी। लेकिन एक विडंबना जो हर बार की तरह इस बार भी देशभर में देखने को मिल रही है, वो है करीब आधा अरब लोगों का मतदान से वंचित होना। चुनाव आयोग भले हर मतदाता को बूथ तक लाने को दृढ़प्रतिज्ञ हो। मगर २०१९ के मुकाबले घटते मत प्रतिशत के बीच उन ६० करोड़ से ज्यादा मतदाताओं की फिक्र कम ही दिखती है, जो इस बार चाहकर भी वोट नहीं दे पाएंगे। ब्लॉकचेन जैसी तमाम तकनीकी विकास और संचार क्रांति के इस दौर में लोकतंत्र के लिए जरूरी इन वंचित मतदाताओं के सुरक्षित मतदान की चिंता किसे है? पिछले चुनाव में ३० करोड़ मतदाता वोट देने से वंचित रह गए थे, इस बार इनके ५० के पार होने की आशंका है। चुनाव आयोग का नारा है, हर एक वोट जरूरी है। उसकी पूरी कोशिश है कि प्रत्येक मतदाता अपने मताधिकार का प्रयोग करे। इसके लिए वह इतना दृढ़ संकल्प है कि १४ हजार फीट से ज्यादा की ऊंचाई पर जहां महज पांच मतदाता हैं, वहां भी उसने पोलिंग बूथ बनाकर मतदान के समूचे इंतजाम किए हैं। वह प्रत्येक मतदाता तक पहुंचे और उसे लोकतंत्र के महापर्व में भाग लेने के लिए प्रोत्साहित करे, इसके लिए भारी संसाधन लगा रखे हैं फिर भी सरकार, विपक्ष और चुनाव आयोग के साथ-साथ राजनीतिक एवं चुनाव विश्लेषक घटते मतदान प्रतिशत को लेकर चिंतित हैं। पर किसी की नजर इस तरफ नहीं है कि देश के करोड़ों मतदाता चाहकर भी अपने मताधिकार का प्रयोग करने में क्यों विफल हैं? ऐसे क्या इंतजाम किए जाएं कि वे भी चुनाव और मतदान प्रक्रिया में सहज सहभागी बनें और जो मतदान प्रतिशत ६० से ७० फीसद है, उसे ८० प्रतिशत से ऊपर पहुंचाया जाए। देश-दुनिया के सामने कहा जा सके कि लोकतंत्र और उसकी चुनावी प्रक्रिया में हमारी जनता का भरोसा और भागीदारी सारे संसार में सबसे अधिक है।
इस बार के लोकसभा चुनाव में देश के ९६.८ करोड़ मतदाता अपने मताधिकार का इस्तेमाल करने वाले हैं, लेकिन इसमें से ६० करोड़ से ज्यादा मतदाता अपने मतदान केंद्र पहुंच मतदान कर सकें, मुश्किल है। लोकतांत्रिक व्यवस्था में यह वह वर्ग है, जिसका देश की अर्थव्यवस्था में महत्वपूर्ण योगदान और राय अहम है। बेशक, तकरीबन एक अरब मतदाताओं में से कम से कम ४५ से ५० करोड़ मतदाताओं का अपने मताधिकार से वंचित रह जाना कोई छोटी-मोटी संख्या नहीं है। वो भी तब, जब मताधिकार के इस्तेमाल हेतु मतदाताओं को प्रेरित करने के लिए कई योजनाएं चलाई जा रही हों, अभियान चल रहे हों। मतदाताओं को जागरूक करने की तमाम सामग्री, क्रिकेट खिलाड़ियों, फिल्मी सेलेब्रिटी द्वारा प्रचार, मैराथन दौड़, मेगा इवेंट, रोड शो, नेताओं का आह्वान और विभिन्न प्रेरक प्रोत्साहन, उनको बूथ तक ले जाने का इंतजाम जैसी कवायदें और कोशिशें हो रही हैं, परंतु इस समस्या का ये हल कतई नहीं है। चुनाव आयोग और राजनीतिक दलों को इस समस्या का हल इससे परे तलाशना होगा। सियासी दल जानते हैं कि मत प्रतिशत के एकमुश्त बढ़त की यही कुंजी है।
यह मुद्दा चुनाव नहीं, वरन समूचे लोकतंत्र के लिए बहुत महत्वपूर्ण है, पर जब चुनाव आयोग और कोई भी सियासी दल चुनाव में इस मुद्दे के स्थाई हल की सोचता नहीं दिखता तो महज चुनाव में ही उभरने वाली इस समस्या को चुनावों के निबट जाने के बाद किसे चिंता होगी, वे जानते-बूझते इसे बिसराए नहीं रखेंगे, इसमें भला किसी को क्यों शक हो। छत्तीसगढ़ में गांव, शहर छोड़कर देश में गए लोगों को वापस लौटकर मतदान करने को प्रेरित करने के लिए एक-एक प्रदेशव्यापी अभियान ‘घर आजा संगी’ चलाया जा रहा है। इसमें प्रवासियों को वीडियो कॉल के जरिए अपने मतदान केंद्र पर आकर मतदान के लिए कहा जा रहा है। अभियान का असर हुआ और चांपा, जांजगीर के बहुत से, मुंगेली गांव के सभी प्रवासी मतदाता वापस आए हैं। ऐसा ही अभियान उत्तर प्रदेश के देवरिया, और हरियाणा तथा उत्तराखंड के कई हिस्सों में चल रहा है। पर सबको मुंगेली जैसा सुखद परिणाम नहीं मिल रहा। खरगोन के झिरन्या के २० हजार श्रमिकों के पलायन को देखते हुए प्रशासन को चिंता है कि मतदान घटेगा। आजीविका हेतु पलायन देश में बहुत बड़ा मुद्दा है। कुछ राज्य इसके लिए कुख्यात हैं। बिहार, उत्तर प्रदेश, झारखंड, ओडिशा, उत्तराखंड, छत्तीसगढ़ जैसे और भी कई राज्यों के प्रवासी मतदाता सुदूर शहरों में रहते हैं। बिहार के ४५ लाख ७८ हजार मजदूर राज्य से बाहर हैं। यानी हर लोकसभा क्षेत्र से तकरीबन सवा लाख मतदाता अपने क्षेत्र में नहीं हैं। झारखंड के दस लाख मजदूर दूसरे राज्यों में हैं, तो दसियों लाख कामकाजी और श्रमिक बंगाल से बाहर हैं।
पिछले कुछ सालों में भारत की ग्रामीण अर्थव्यवस्था धीमी हुई है, जिस कारण आने वाले सालों में आंतरिक प्रवासन और बढ़ने की आशंका है। आज भी ६० फीसदी आबादी गांवों में रहती है। कुछ जगहों से तो हर साल लाखों की संख्या में पलायन हो रहा है। इनमें से अधिकतर २५ वर्ष से ४० साल के लोग हैं, जो काम की तलाश में शहरों की ओर जा रहे हैं। जाहिर है ये सभी मतदान योग्य या मतदाता हैं। इनके वोट अपने गांव-कस्बे, छोटे शहरों में दर्ज हैं, लेकिन ये राह खर्च, अस्थाई, दिहाड़ी वाली नौकरी, अवकाश और तमाम मजबूरियों के चलते मतदान स्थल पर नहीं जा सकते। कोरोना काल में शहरों से १० करोड़ से अधिक प्रवासी मजदूरों का पलायन सबको याद है। उसमें भी बहुत से मतदाता इधर से उधर हो गए। सरकारी आंकड़ों के मुताबिक, २०१९ के आम चुनावों में इस वर्ग के ३० करोड़ से ज्यादा प्रवासी मजदूर ने मतदान नहीं किया था। देश के आंतरिक प्रवासियों की आधिकारिक गणना हुए दस बरस से ज्यादा बीत चुके हैं इसलिए भारत में कितने लोग अपने शहरों, गांवों, राज्यों से बाहर जाकर काम करते हैं, इसका कोई आधिकारिक आंकड़ा उपलब्ध नहीं है। मोटे अनुमान के मुताबिक, कुल ९६८ करोड़ मतदाताओं में से ४० फीसदी मतदाता इस श्रेणी में आ सकते हैं। २०११ में हुई आंतरिक प्रवासियों की गणना के अनुसार, तब सवा अरब की आबादी में से ४६ करोड़ लोग अपने राज्यों से बाहर काम कर रहे थे। आंतरिक प्रवासन पर काम करने वाले एक थिंक टैंक इंटरनेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ माइग्रेशन एंड डेवेलपमेंट के मुताबिक, बीते १२ सालों में कम से कम १५ करोड़ लोग इसमें और जुड़े होंगे। अगर अपने राज्य में ही, पर मतदान केंद्र से सुदूर शहरों में प्रवास करने वालों की संख्या इसमें जोड़ें तो ये सौ करोड़ से ऊपर बैठेगी। इनमें से अधिकतर स्थाई तौर पर प्रवासन के लिए नहीं आते, इसलिए वे जहां रहते हैं, वहां स्थाई कागज पत्र और मतदाता पहचान पत्र इत्यादि नहीं बनवाते। इनमें से कुछ ही हैं, जो अपने गांव, शहर के मतदान केंद्र तक पहुंच पाने की आर्थिक सामर्थ्य और अतिरिक्त अवकाश अथवा समय रखते हैं।
ऐसे में यह माना जा सकता है कि साठ करोड़ से अधिक प्रवासी मतदाताओं में से अधिकांश मतदान प्रक्रिया में चाहते हुए भी शामिल नहीं हो पाते। देश की अर्थव्यवस्था में प्रवासी मजदूरों का बहुत अहम योगदान है। श्रमिकों से इतर बहुत से प्रवासी देश की सकल घरेलू उत्पाद में महत्वपूर्ण योगदान देते हैं, लेकिन इसके बावजूद ये किसी भी पार्टी के पक्के वोटबैंक नहीं माने जाते। असंगठित और कमजोर शैक्षिक और आर्थिक स्थिति के अलावा बाहर रहने की वजह से ये एकजुट भी नहीं होते और न अपने अधिकारों के लिए संघर्ष कर पाते हैं। चुनावों में मत के जरिए अपना पक्ष न रख पाना उन्हें राजनीतिक निर्णय की प्रक्रिया से बाहर कर देता है, जिससे उनके शोषण की आशंका बढ़ जाती है। ‘सबका साथ, सबका विकास’ का नारा देने वाली सरकार हो या कोई भी लोकतांत्रिक सत्ता, चुनाव आयोग के साथ मिलकर इस स्थिति को बदलने की आवश्यकता है। एक देश एक चुनाव के विचार के साथ यह भी विचारा जाना चाहिए कि देश में कोई मतदाता कहीं भी हो, वह वहीं से अपने मताधिकार का सुरक्षित प्रयोग कर सके। संचार क्रांति और ब्लॉकचेन जैसी तकनीकि के युग में यह नितांत संभव है, आवश्यकता बस इच्छाशक्ति की है।
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार और विज्ञान व तकनीकी विषयों के जानकार हैं)