पर्यावरण के रंग

आज अगर कवि कहता चितेरे से
चितेरे बना दे मेरे लिए चित्र बना दे
पहले सागर आंक विस्तीर्ण, प्रगाढ़ नीला
लेकिन चितेरे की तूलिका को दिखता है
मटमैला समुद्र चारों ओर से गिरती गंदगियों को अपने में समेटे
अपनी छाती को कुचलते भारी भरकम जहाज के दबाव को झेलते
अपने तन मन को बचाने के लिए संघर्ष करता समुद्र फिर कवि कहता आंक एक उछलती हुई मछली, लेकिन मछली कहां उछलकूद करेगी
प्रदूषित समुद्र तट के जहरीले वातावरण में
मछली अपना तैरना उछालना भूल गई
पड़ी है तट पर बेजान मरी हुई मछली
चितेरे त तू कहां से लाएगा प्राणों में वह उत्कट जिजीविषा
वो आह्लाद वो अनन्त का नीला आकाश
लहराता समुद्र, अठखेलिया करती मछलियां
तुझे तो इस रंग उड़ी दुनिया में ही जीना होगा
खोजते हुए इन सबको।
-डॉ. कनकलता तिवारी

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