मुख्यपृष्ठस्तंभसमान नागरिक अधिकार और हम!

समान नागरिक अधिकार और हम!

प्रो. हरबंश दीक्षित

संविधान का अनुच्छेद-४४ सबसे अधिक दुष्प्रचारित हिस्सों में से एक है। इस उपबंध के साथ बहुत अन्याय हुआ है। इसमें देश के सभी नागरिकों के लिए एक जैसा कानून बनाने की बात कही गई है। सरकार से अपेक्षा की गई है कि सभी के लिए एक जैसा कानून बनाए। ऐसी व्यवस्था बनाए जो मानवीय गरिमा का सम्मान करती हो, उसे सुरक्षा बोध दे और सभ्य समाज के मानकों पर खरी उतरे।
दुर्भाग्यवश, अनुच्छेद-४४ की इस पवित्र मंशा को आगे बढ़ाने की बजाय उसका हमने अपनी फितरत के मुताबिक एक हौव्वा खड़ा कर दिया। उस पर तार्किक बहस करने की बजाय उसे सांप्रदायिक रूप देकर अछूत बना दिया। सुप्रीम कोर्ट का आग्रह बेकार गया। अदालत के निर्देशों की अवमानना की गई। यह दस्तूर आज भी कायम है। इस मामले में तो हम लोकशाही की महान परंपराओं से भी मुंह चुराने लगते हैं। इस विषय पर स्वस्थ बहस करने की बजाय इसके प्रस्तावकों की लानत-मलामत करने लगते हैं और उसे तब तक जारी रखते हैं जब तक कि सामने वाला थक-हार कर बैठ न जाए।
वैसे तो हमारे देश में अधिकतर मामलों में एक जैसा कानून लागू होता है। जमीन की खरीद फरोख्त, किराएदारी और दीगर दीवानी मामलों में आजादी के पहले से ही एक जैसा कानून लागू होता है, लेकिन विवाह, उत्तराधिकार, वसीयत दत्तक ग्रहण जैसे मामलों में आजादी के पहले से ही अलग-अलग संप्रदायों के लिए अलग कानून रहे हैं। संविधान निर्माताओं ने महसूस किया कि विवाह और भरण-पोषण से जुड़े मामलों का संबंध किसी पूजा पद्धति से नहीं है, बल्कि इसका संबंध इंसानियत से है। निस्संतान व्यक्ति यदि किसी बच्चे को गोद लेकर अपनी वंश परंपरा को आगे बढ़ाना चाहता है या उससे उसको सुरक्षा बोध का अहसास होता है तो उससे किसी पूजा पद्धति की अवमानना वैâसे हो सकती है? यदि किसी कानून से किसी महिला को सामाजिक सुरक्षा मिलती है या पति से अलग होने या पति के नाराज होने के बाद उसे दर-बदर भटकने की बजाय यदि गुजारे-भत्ते की व्यवस्था की जाती है तो इसमें उसका धर्म कहां से आड़े आता है? महिला-पुरुष के वैवाहिक संबंधों में यदि समानता सुनिश्चित की जाती है तो इससे किसी भी सभ्य समाज के लिए शर्मिंदगी नहीं, अपितु गर्व की अनुभूति होती है।
आजादी के बाद इस दिशा में सकारात्मक पहल की गई। समानता के सिद्धांत को ध्यान में रखते हुए पारंपरिक हिंदू विधि में व्यापक परिवर्तन किए गए। पहले पुरुष एक से अधिक शादियां कर सकता था, वहीं हिंदू विवाह अधिनियम के जरिए उस पर प्रतिबंध लगा दिया गया। पति-पत्नी को विवाह विच्छेद करके सम्मानपूर्वक एक-दूसरे से अलग रहने का अधिकार दिया गया। महिलाओं की आर्थिक सुरक्षा के मद्देनजर उन्हें भरण-पोषण का अधिकार दिया गया। पिता की संपत्ति में बेटियों को भी अधिकार देने की परंपरा शुरू हुई। संतान को गोद लेने के मामलों में भी पति के एकाधिकार को तोड़ते हुए महिलाओं की भागीदारी सुनिश्चित करने की कोशिश की गई। हिंदू कानून में किए जाने वाले सुधार दूसरे संप्रदायों में पहले से ही थे। मसलन, मुस्लिम कानून में बेटियों का उत्तराधिकार पहले से ही था। ईसाई कानून में पहले भी पुरुष को एक ही पत्नी रखने का अधिकार था। हिंदू कानून में किए गए सुधारों में पारंपरिक विधि की जगह मानवाधिकारों और समानता के सिद्धांतों को तरजीह दी गई, लेकिन दूसरे मामलों में ऐसा नहीं हो सका और उन्हें बेहतर होने के मौके से लगातार वंचित रखा गया। संविधान का अनुच्छेद-४४ और अदालतों के कई निर्देश भी इस सोच पर बेअसर रहे।
आधुनिक सोच का लाभ केवल हिंदुओं तक ही सीमित न रहे और वह दूसरे मतावलंबियों को भी हासिल हो, इसके लिए अदालतें लगातार कोशिश करती रही हैं। मोहम्मद अहमद खान बनाम शाहबानो (१९८५) केस में सुप्रीम कोर्ट ने इस पर चिंता व्यक्त करते हुए कहा था कि यह अत्यंत खेद का विषय है कि संविधान के अनुच्छेद-४४ में तय की गई राज्य की जिम्मेदारी अब निर्जीव शब्द समूह का संग्रह मात्र बनकर रह गई है। सरकारी उपेक्षा को ध्यान में रखते हुए अदालत ने कहा कि मुस्लिम समाज को इस मामले में पहल करने की जरूरत है, ताकि प्रगति की दौड़ में वे दूसरों से पीछे न रहें। हैरानी की बात यह है कि शाहबानो के जिस मुकदमे में सुप्रीम कोर्ट ने लोगों से इस दिशा में आगे बढ़ने की पहल का आह्वान किया, उसके धार्मिक दुष्प्रचार ने समान नागरिक कानून की पहल को सबसे मर्मांतक चोट पहुंचाई।
शाहबानो प्रकरण में सुप्रीम कोर्ट ने एक तलाकशुदा मुस्लिम महिला के गुजर-बसर के लिए कुछ धनराशि तय की। दंड प्रक्रिया संहिता की धारा-१२५ का क्रियान्वयन करते हुए इसे अंजाम दिया गया और लोगों को आगे बढ़कर इस मुहिम को मूर्तरूप देने का आह्वान किया गया। परिणाम इसका ठीक उल्टा हुआ। इसे कट्टर मुसलमानों ने अपने धार्मिक मामलों में दखलंदाजी के रूप में प्रचारित किया। निहित हितों के संरक्षण हेतु कुछ लोगों ने इसे पूरी कौम की अस्मिता पर खतरा करार दिया। राजीव गांधी की प्रचंड बहुमत वाली सरकार भी उस वाग्जाल की आंधी का सामना नहीं कर सकी। उन्होंने मोहम्मद आरिफ खान जैसे प्रखर वक्ता को इसका उत्तर देने के लिए आगे किया, किंतु सब बेकार रहा। सरकार को झुकना पड़ा। कानून बनाकर मुस्लिम महिलाओं को गुजारे भत्ते के अधिकार से वंचित करना पड़ा। आरिफ खान जैसे व्यक्ति के राजनैतिक करियर को ग्रहण लग गया। संविधान की पराजय हुई और मानवता तथा समानता के उन सिद्धांतों की बलि दी गई, जिसकी बुनियाद पर इस्लाम की स्थापना हुई थी। संदेश यह गया कि अब समान नागरिक कानून के लिए पहल मत करना। बाद के घटनाक्रम बताते हैं कि लोगों ने इस संदेश को बखूबी याद रखा। तार्किक विचारधारा के लोग अपनी बात कहते रहे, सुप्रीम कोर्ट निर्देश जारी करता रहा और सरकार शाहबानो प्रकरण के निहितार्थ सबक का पालन करती रही।
शाहबानो प्रकरण के बाद सरला मुद्गल (१९९५) तथा लिली थॉमस (२०००) जैसे कई प्रकरणों में सर्वोच्च न्यायालय ने समान नागरिक कानून के नहीं होने के दोषों को उजागर करते हुए इसका तुरंत क्रियान्वयन करने का निर्देश दिया। वैवाहिक मामलों में वैयक्तिक विधि के दुरुपयोग से विचलित होकर अदालत ने कहा कि अब तो इसका दुरुपयोग कानून को धोखा देने के लिए होने लगा है। जब वैवाहिक साथी से छुटकारा पाना हो तो कुछ समय के लिए अपना धर्म बदलकर दूसरी शादी कर ली, क्योंकि दूसरे धर्म से जुड़े कानून में उसे मान्यता दी गई है। उसके बाद अपनी मर्जी से तलाक देकर उस महिला से छुटकारा पा लिया, क्योंकि उस धर्म का कानून इसकी इजाजत देता है। सुप्रीम कोर्ट और दूसरे विद्वानों ने इसी कमी की ओर बार-बार इशारा किया, लेकिन हमारी व्यवस्था पर इसका कोई असर नहीं पड़ा। ढाक के वही तीन पात रहे, क्योंकि लोग शाहबानो प्रकरण से अभी भी सहमे हुए थे।
मार्वंâडेय काटजू ने अपने बयान में समान नागरिक कानून की वकालत करके संविधान के अनुच्छेद-४४ और सुप्रीम कोर्ट के निर्देशों की परंपरा को आगे बढ़ाने का काम किया है। इसके पहले अन्य विद्ववानों ने भी इसकी वकालत की है। न्यायमूर्ति मुहम्मद करीम छागला ने मोतीलाल नेहरू व्याख्यान मामले में प्रोफेसर ताहिर महमूद ने अपनी पुस्तक मुस्लिम पर्सनल लॉ (१९७७) में तथा न्यायमूर्ति एम.यू. बेग ने ‘इम्पेक्ट ऑफ सेक्यूलरिज्म (१९७३) में भी संविधान के अनुच्छेद-४४ को अमली जामा पहनाने का आह्वान किया, किंतु शाहबानो प्रकरण के दु:स्वप्न से अभी भी कोई उबरने को तैयार नहीं है। समाज के व्यापक हितों के मद्देनजर समाज के पंथनिरपेक्ष हितचिंतकों को आगे बढ़कर इस दिशा में पहल करने की जरूरत है, ताकि हम एक प्रगतिशील समाज के रूप में एकजुट हो सकें।
(लेखक जाने-माने कानूनी शिक्षाविद् हैं। संप्रति तीर्थंकर महावीर यूनिवर्सिटी, मुरादाबाद में विधि संकाय के डीन हैं।)
(उपरोक्त आलेख में व्यक्त विचार लेखक के निजी विचार हैं। अखबार इससे सहमत हो यह जरूरी नहीं है।)

अन्य समाचार