सबकी अपनी अपनी पीड़ा।
सबके अपने-अपने घाव।।
सबकी आपनी अपनी झंझट।
बदले हैं सबके वर्ताव।।
सबकी अपनी अपनी कुर्सी ।
सबके अपने-अपने दाँव।।
अर्थतंत्र ने जुल्म कर दिया।
सबके ऊपर बढ़े दबाव ।।
कोई हरदम भटक रहा है।
हम तो रोते रहे अभाव।।
मारकाट के इस मौसम में।
डूब रही है सबकी नाव।।
जंगल जंगल आग लगी है।
कैसे होगा आज बचाव।।
मतलब की सारी दुनिया है।
मतलब का ही हुआ लगाव।।
वे कहते हैं हुआ मुकम्मल।
हमको दिखता रहा काटाव।।
सारा झंझावात यहाँ है।
सीने में जल रहा अलाव।।
पूँजीवादी करामत से।
फूल रहे हैं सबके पाँव।।
लोभ हबस के तूफानों से।
आओ हम सब करें बचाव ।।
सब की अपनी अपनी पीड़ा ।
सबके अपने-अपने घाव।।
अन्वेषी