परीक्षा

परीक्षा तो आखिर परीक्षा होती है, चाहे वह लोकल हो या नीट नेट की, चाहे रेलवे की हो या अन्य, उसका अपना महत्व व अति उच्च स्तर होता है। हर एक परीक्षा की गोपनीयता, विश्वसनीयता, निष्पक्षता व पारदर्शिता के ढांचे पर निर्भर रहती हैं, मगर पिछले पांच सालों में परीक्षाएं मजाक बन कर रह गई हैं। अब परीक्षा को परीक्षा कहना उसकी तौहीन ही करना है। अब तो ये सभी महत्वपूर्ण परीक्षाएं अपने हाल-बेहाल पर रो रही होंगी कि अब तो उनकी ही परीक्षा हो रही है। अब तक एक के बाद एक 45 से अधिक परीक्षाओं के पेपर लीक हो गए, मगर कोई रोकथाम के गम्भीर उपाय नहीं। वहीं बेढंगी की बेढंगी चाल चली आ रही है। दूध का जला, छाछ फूंक कर पीता है, मगर इस प्रकरण में तो बार-बार जले दूध को ही पिया जा रहा है। जब जवाबदेही की बात आती है तो हमेशा की तरह मुंह मोड़ लिया जाता है। गनीमत है कि किसी ने उक्त प्रकरण में नेहरू जी को जिम्मेदार नहीं ठहराया, वर्ना यह भी मुमकिन कर दिया जाता !
कितनी विडंबना कि हास्यास्पद स्थिति है कि उच्च स्तर की इन परीक्षाओं का ठेका प्रायवेट (आउट सोर्स) लोगों के हाथों में था, जिनकी कोई जिम्मेदारी नहीं होती। एक व्यक्ति तो मामले के तूल पकड़ते ही, विदेश भाग गया। हर घटना के बाद छोटी-छोटी मछलियों को ही पकड़ा जाता है। ठीक पेपर लीक मामले में भी छोटी मछलियां ही पकड़ी जाएंगी। बड़े-बड़े मगरमच्छ तो ताल-तलैया के गहरे पानी में डूबकी लगाकर बच जाएंगे। यही तो हो रहा है।
आखिरकार सरकार नाम की कोई चीज होती है, जिसका नियंत्रण होता है । लेकिन इधर-उधर की बात कर भटकाया जा रहा है। भले ही कोई माने या न माने ऐसे प्रकरणों से सरकार की छवि भी भद्दी होती है। सरकार को कड़े कदम के साथ दूरदर्शी सोच के साथ सारे नियंत्रण पूरी जिम्मेदारी के साथ अपने हाथों में लेना चाहिए, अन्यथा खुला खेल फर्रुखाबादी…! चलता रहेगा। परीक्षा की परीक्षा होती रहेगी!

-हेमा हरि उपाध्याय ‘अक्षत’

उज्जैन

अन्य समाचार