परकाला प्रभाकर
प्यू रिसर्च सेंटर ने मार्च २०२१ में एक रिपोर्ट प्रकाशित की। इसने कहा कि महामारी के दौरान भारत की गरीबी बढ़ी है और देश का मध्यवर्ग सिकुड़ा यानी कम हुआ है। विद्वानजन इस पर तर्क कर सकते हैं कि इन निष्कर्षों पर पहुंचने की मेथेडोलॉजी क्या थी, लेकिन मैं आपका ध्यान अपने देश में महत्वपूर्ण आंकड़ों की अनुपस्थिति और सरकारी एजेंसियों द्वारा दिए गए आंकड़ों की विश्वसनीयता की तरफ खींचना चाहता हूं। खतरनाक बात यह है कि सरकार के ऊपर संदेह है कि वह असहज करने वाले और उसकी नाकामी को दिखानेवाले आंकड़ों को छिपाती है। और यह भी लगातार महसूस किया जा रहा है कि देश के डाटा सिस्टम को राजनीतिक हस्तक्षेप से बदला जा रहा है।
प्यू की रिपोर्ट ने भारत और चीन की तुलना की है। यहां अभी हमें चीन के बारे में बात करने की जरूरत नहीं इसलिए भारत के आंकड़ों पर ही बात करें। २०२० में वर्ल्ड बैंक के अनुमान और २०२१ की तत्कालीन हालत को देखते हुए प्यू ने यह निष्कर्ष निकाला कि भारत में और साढ़े सात करोड़ लोग गरीब हुए हैं। साथ ही मध्यम आय वर्ग में तीन करोड़ २० लाख लोग कम हो गए हैं और साढ़े तीन करोड़ लोग जो निम्न आय वर्ग में थे, वे भी गरीबी में धकेल दिए गए हैं।
वैश्विक संदर्भ में देखें तो महामारी के दौरान जितने लोग पूरी दुनिया में गरीब हुए, उनमें ६० फीसदी भारत के थे। पूरी दुनिया में मध्यम आय वाले वर्ग से जितने लोग फिसले, उनमें से भी ६० प्रतिशत भारतीय थे। ये आंकड़े डरावने हैं। वह इसलिए कि महामारी के पहले भी वैश्विक स्तर पर २८ फीसदी गरीब भारत में थे। संयुक्त राष्ट्र की २०१९ की मानव विकास सूचकांक रिपोर्ट के मुताबिक, जो किसी देश के सामाजिक व आर्थिक विकास को आंकती है भारत १८९ देशों में १२९वें स्थान पर था। यह महामारी के एक साल पहले था और भारत तभी उसके ठीक पहले के साल से एक स्थान पीछे आ चुका था। अब अगर हम मार्च २०२१ की प्यू रिपोर्ट में दिए चीन के आंकड़ों को देखें, तो हमें पता चलेगा कि जो भी भारत में हुआ वह महामारी का अवश्यंभावी नतीजा नहीं था। भारत ने जहां महामारी के पहले साल साढ़े सात करोड़ गरीब और जोड़े, चीन ने वह संख्या मात्र १० लाख तक रखने में सफलता पाई।
भारत का मध्यम आय वर्ग जहां ३ करोड़ २० लाख कम हुआ, चीन में वह ३ करोड़ बढ़ा। हम सबको खुद से पूछना चाहिए: हम गरीबी के दुखद और खतरनाक गड्ढे में इतने लोगों को जाने से रोक क्यों नहीं सके? जैसा दूसरों ने किया दूसरे कर सके, वह हम क्यों नहीं कर पाए? इसका कारण, मेरी नजर में यही है कि हम सच्चाई को नकारते रहे। हम सच्चाई का सामना करने में हिचकते रहे। हमारी सरकार यह दिखावा कर रही थी कि कहीं कोई समस्या नहीं है। आंकड़ों को दबाकर, उन्हें ठीक-ठाक करके, विज्ञापन और हरेक भाषा में प्रचार करके सरकार ने लोगों को यह भरोसा दिलाने की कोशिश की कि सब ठीक है। कुछ मामलों में तो किसी तरह के आंकड़े जुटाए ही नहीं गए, इसने शुतुरमुर्ग की तरह नीति-नियंताओं का सर बालू में गाड़ दिया और खुद को भी दिलासा दी कि सब बढ़िया है।
राजकमल ब्लॉग से साभार, परकाला प्रभाकर की किताब ‘नये भारत की दीमक लगी शहतीरें : संकटग्रस्त गणराज्य पर आलेख’ का एक अंश।