अजय भट्टाचार्य
‘अहम् ढपोर शंखनम्, वदामि च ददामि न’ जिसका अर्थ है कि मैं ढपोर शंख हूं, बोलता हूं लेकिन कुछ देता नहीं हूं। ढपोर शंख से जुड़ी कई कथाएं हैं, जिनमें सबसे प्रचलित है एक गरीब ब्राह्मण की कहानी जिसे समुद्र ने एक शंख दिया था जो दिन में एक बार अपने याचक की कोई भी इच्छा पूरी करने में समर्थ था। शंख से ब्राह्मण की याचना पूरी होती देख एक वणिक उसे चुराकर एक साधारण शंख से बदल देता है। अगले दिन याचना करने पर जब शंख कुछ नहीं देता तब ब्राह्मण फिर समुद्र के पास जाता है और अपनी तकलीफ बताता है। समुद्र अंतरज्ञान से सब जान लेते हैं और ब्राह्मण को एक दूसरा शंख देते हुए कहते हैं कि वणिक के सामने इस शंख से याचना करना, तुम्हारा वाला शंख तुम्हें मिल जाएगा। ब्राह्मण ने ऐसा ही किया। शंख से बोला एक स्वर्ण मुद्रा दे दो। शंख ने कहा मैं दिव्य शंख हूं एक क्या दो स्वर्ण मुद्राएं मांग। वणिक ओट से यह सब सुन रहा था। ब्राह्मण शंख की पूजा करके सो गया तब वणिक ने पहले वाला शंख ब्राह्मण के पास रख दिया और नया शंख चुरा लिया। अगली सुबह ब्राह्मण उठकर घर चला गया और शंख से फिर एक स्वर्ण मुद्रा की मांग की। टन्न की आवाज के साथ ब्राह्मण के पात्र में स्वर्ण मुद्रा आकर गिरी। दूसरी तरफ वणिक ने जैसे ही दुबारा चुराए शंख से एक स्वर्ण मुद्रा मांगी तब शंख ने कहा मैं दिव्य शंख हूं, हजार मुद्राएं मांग! वणिक ने कहा ठीक है हजार दे दो तब शंख ने कहा कि हजार से क्या होगा दस हजार मांग। वणिक जैसे-जैसे बढ़ी हुई मांग पर सहमति देता, शंख उससे ज्यादा देने की कहकर टरका देता। खीजकर वणिक ने उस शंख को वापस समुद्र में फेंक दिया। दरअसल, ब्राह्मण को जो दूसरा शंख समुद्र ने दिया था वह ढपोर शंख था जो बड़े-बड़े वादे करता पर पूरे कभी नहीं करता। इसके बाद ढपोर शंख का क्या हुआ कोई नहीं जनता! लेकिन ढपोर शंख शब्द का प्रयोग एक मुहावरे के रूप में शुरू हुआ। हिंदी भाषी मध्यवर्गीय समाज में आज भी इसका प्रयोग होता है। ढपोर शंख के साथ ही ढोल में पोल कहावत को भी याद कर लेना चाहिए। गौर करें कि ढोल एक ऐसा वाद्य होता है, जिसके दोनों सिरों पर चमड़ा मढ़ा होता है और इसे दोनों हाथों से बजाये जाने पर यह बहुत तेज आवाज करता है। ढोल की आकृति पर ध्यान दें। मूलत: यह अंदर से खोखला होता है। ढोल की पोल कहावत का अर्थ यह हुआ कि दिखने में बहुत बड़ा और तेज आवाज वाला होने के बावजूद ढोल में भीतर कुछ भी ठोस नहीं है अर्थात वह भीतर से खोखला और पोला होता है। भाव यही है कि बाहरी प्रदर्शन और दिखावा करने से भीतरी खामियां दूर नहीं हो जातीं।
खैर, ढपोर शंख को समुद्र में डूबे कई युग बीत गए। एक दिन उसने समुद्र से प्रार्थना की कि भगवन..! मेरा नाम झूठ का पर्यायवाची बन चुका है। कृपया मेरी मुक्ति का मार्ग बताएं। समुद्र ने कहा कि यह मेरे सामर्थ्य के बाहर है। तुम नारायण अर्थात विष्णु के पास जाओ। ढपोर शंख ने विष्णु के पास जाकर अपनी व्यथा बताई। तब भगवान विष्णु ने कहा- हे ढपोर शंख, मैं तुम्हें शंख योनि से मुक्त कर मनुष्य योनि में भेजूंगा। लेकिन कब? ढपोर शंख ने जिज्ञासा प्रकट की। भगवान बोले जंबूद्वीप के भरतखंड स्थित आर्यावर्तान्तर्गत ढपोर शंख के गुणों के साथ तुम्हारा जन्म होगा। इन्हीं गुणों के साथ तुम सत्ता के शीर्ष तक पहुंचोगे…! तथास्तु कहकर विष्णुजी अपनी माया के साथ अंतर्ध्यान हो गए। समय बीता। देश में हाल की राजनीति को यदि ढपोर शंख की संज्ञा दी जाए तो गलत नहीं होगा। अच्छे दिन आनेवाले हैं से शुरू हुआ यह छलावा हवाई चप्पल धारकों को हवाई जहाज यात्रा कराने से लेकर किसानों की आय दोगुनी करने तक थमा नहीं है। हालत यह है कि हवाई यात्रा का सपना पाले ८० करोड़ लोग हवाई चप्पल खरीदने के लायक भी नहीं रहे हैं और अब सरकारी दया पर मिलनेवाले पांच किलो सरकारी राशन पर जिंदा रहने को मजबूर हैं। सौ स्मार्ट सिटी कहां हैं यह सत्ता पक्ष को भी नहीं पता। अलबत्ता, नाली से गैस और बादलों के पीछे लड़ाकू विमान को रडार तक नहीं पकड़ पाने की तकनीक ईजाद हो गई। चीन से आंख से आंख मिला, कब ताल से ताल मिला, में बदल गया पता ही नही चला। उस पर नई सुरसुरी यह है कि स्मृति ग्रंथों से ढपोर शंख की कथा को हटाने पर भी विचार चल रहा है।