मुख्यपृष्ठस्तंभउड़न छू : जात न पूछो...

उड़न छू : जात न पूछो…

अजय भट्टाचार्य

संत कबीर ने सज्जन व्यक्ति की महत्ता को रेखांकित करते हुए एक दोहा लिखा था-
जाति न पूछो साधु की, पूछ लीजिए ज्ञान
मोल करो तलवार का, पड़ा रहन दो म्यान
यहां आमतौर पर साधु का मतलब किसी संन्यासी अथवा भिक्षुक से ही माना जाता है, किंतु कबीर का यह दोहा ‘सज्जन’ व्यक्ति की महत्ता बता रहा है। अगर साधु या भिक्षुक भी मान लें तब भी उपरोक्त दोहे की पहली पंक्ति स्पष्ट कर देती है कि ज्ञान ही साधु की पहचान है। मसला तब उलझता है जब अनपेक्षित पद, प्रतिष्ठा और अधिकार ऐसे व्यक्ति को मिल जाए जो उसके योग्य नहीं है, तब वह खुद को महाज्ञानी समझने लगता है और अपने (अ)ज्ञान को जबरन थोपना धर्म की सेवा मानता है। महाराज जी ने आदेश दिया कि कांवड़ियों के मार्ग में आनेवाले नगरों, कस्बों, गांवों की गलियों, सड़कों पर ठेले, खोमचे, होटल, ढाबे चलानेवाले अपना नाम लिखें। नाम इसलिए लिखें कि कांवड़िए जान सकें कि उन संबंधित दुकानदारों से खाद्य सामग्री लेना है या नहीं लेना है, ताकि उनका संकल्प खंडित न हो। आस्था, परंपरा, विश्वास डगमगा न जाए। कल्पना करें किसी के छूने, किसी से सामान खरीदने से अगर आस्था, विश्वास, भक्ति, पूजा-अर्चना, वंदना खंडित-बाधित होती है तो इससे बड़ा पाखंड नहीं हो सकता।
चलिए नाम के आधार पर पूजा-पाठ, कर्मकांड की वस्तुएं खरीदते पाखंड का एक काल्पनिक दृश्य अनुभव करें-
बम की आवाज लगाते हुए भक्तराज रामलाल की दुकान पर रुके और आम खरीदने की इच्छा जाहिर की। मगर फिर भी पूछ लिया ये आम किसके बाग के हैं? रामलाल बोले- ये तो पता नहीं, लेकिन कोई कह रहा था कि मलीहाबाद से ये आम मंडी में आए थे। भक्तराज परेशान कि मलीहाबाद में अधिकतर आम बागान विधर्मियों के हैं। शिव शिव…! ये आम धर्म भ्रष्ट कर देंगे, तभी वहां कबीर की आत्मा प्रगट हुई और भक्तराज के कंधे पर हाथ रखकर कहा-
जात-पांत पूछे नहिं कोई
हरि को भजे सो हरि का होई।
भक्तराज भ्रमित! महाराज की माने या कबीर की? तब तक कबीर ने भक्तराज के पैरों पर नजर डाली। चमड़े की चप्पलें थीं। पूछा ये किस पशु के चमड़े की चप्पलें हैं? भैंस, गाय, हिरन, ऊंट, अजगर, बकरी या और किसी जानवर की खाल की, कुछ पता है? भक्तराज को भी पता नहीं कि किसकी खाल से चप्पल बनी है। हे महादेव! चप्पल गाय की खाल की हुई तो? धर्म भ्रष्ट होने की शंका मन में उठते ही भक्तराज ने चप्पलें उतार दीं। तभी आत्मा ने उनके कंधे पर लटकी कांवड़ से झूल रही घंटियों पर नजर डाली और भक्तराज से पूछा- ये घंटी पीतल की है और देश भर में पीतल का सबसे बड़ा कारोबार मुरादाबाद में होता है और मुरादाबाद में ज्यादातर यह मुस्लिम कारोबारी पीतल के व्यवसाय से जुड़े हैं। भक्तराज ने तुरंत कांवड़ की घंटियां निकाल दीं। अभी वह कुछ संभल पाता कि कबीर की आत्मा ने फिर सवाल दागा कि ये जो कपड़ा, गमछा, धोती, कुर्ता वगैरह शरीर पर है, यह किसने बनाया। भक्तराज बोले बिरलाजी की सेंचुरी कंपनी का है। आत्मा ने बताया कि कंपनी के लिए कपड़ा जिस लूम पर बुना गया उसका मालिक और मजदूर मुस्लिम हैं। भक्तराज अब अपने कपड़े उतारने लगे तभी कबीर की आत्मा ने रोका और कहा- क्या-क्या छोड़ोगे? भगवान की मूर्ति को जो जरी वाले कपड़े पहनाते हो उनमें भी जरीकारी का ज्यादातर काम मुस्लिम महिलाएं करती हैं। किरीट-मुकुट की सजावट अधिकतर मुस्लिम कलाकार करते हैं। क्या-क्या छोड़ोगे? तभी वहां से समोसे का खोमचा लिए एक व्यक्ति गुजरा। भक्तराज को भूख लग आई थी सोचा समोसे ही खा लूं। खोमचे वाले भी पंडित जी थे। जाति से बड़े मगर पढ़े-लिखे होने के बावजूद नौकरी न मिलने पर समोसे बेचने लगे। भक्तराज समोसे खरीदने ही वाले थे कि कबीर की आत्मा ने चेताया कि समोसे का अविष्कार ईरान में हुआ था, पंद्रहवीं सदी में यह मुस्लिम आक्रमणकारियों के साथ अफगानिस्तान के रास्ते भारत आया। सोलहवीं सदी में पुर्तगाली अपने साथ आलू भारत लाए, जो बाद में समोसे में भरा जाने लगा इसलिए भक्त बिरादरी ने निर्णय लिया है कि वे समोसे का पूर्ण बहिष्कार करेंगे। ठीक उसी तरह जैसे अयोध्या के हिंदुओं का किया था/है। भक्तराज की आंख के साथ-साथ ज्ञान चक्षु भी खुल चुके थे। वे आगे बढ़े और फरीद मियां की दुकान से सेब खरीदकर पहले भगवान को चढ़ाया फिर प्रसाद स्वरूप खुद भी पा लिया। भगवान को उस सेब से कोई परेशानी नहीं थी, जो कश्मीरी मुसलमान के बाग से आया था।
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं और देश की कई प्रतिष्ठित पत्र-पत्रिकाओं में इनके स्तंभ प्रकाशित होते हैं।)

अन्य समाचार