अजय भट्टाचार्य
ओशो ने जेम्स थरबर की एक बहुत प्रसिद्ध कथा का जिक्र करते हुए लिखा है कि सांपों के देश में एक बार एक शांतिप्रिय नेवला पैदा हो गया। नेवलों ने तत्क्षण उसे शिक्षा देनी शुरू की कि सांप हमारे दुश्मन हैं। पर उस नेवले ने कहा, `क्यों? मेरा उन्होंने अब तक कुछ भी नहीं बिगाड़ा।’ पुराने नेवलों ने कहा, `नासमझ, तेरा न बिगाड़ा हो, लेकिन वे सदा से हमारे दुश्मन हैं। उनसे हमारा विरोध जातिगत है।’ पर उस शांतिप्रिय नेवले ने कहा, `जब मेरा उन्होंने कुछ नहीं बिगाड़ा तो मैं क्यों उनसे शत्रुता पालूं?’
खबर फैल गई नेवलों में कि एक गलत नेवला पैदा हो गया है, जो सांपों का मित्र और नेवलों का दुश्मन है। नेवले के बाप ने कहा, ‘यह लड़का पागल है।’ नेवले की मां ने कहा, ‘यह लड़का बीमार है।’ नेवले के भाइयों ने कहा, ‘यह लड़का, यह हमारा भाई बुजदिल है।’ उसे बहुत समझाया कि यह हमारा फर्ज है, राष्ट्रीय कर्तव्य है, कि हम सांपों को मारें। हम इसीलिए हैं। इस पृथ्वी को सांपों से खाली कर देना है, क्योंकि उन के कारण ही सारी बुराई है। सांप ही शैतान हैं। उस शांतिप्रिय नेवले ने कहा, `मैं तो इसमें कोई फर्क नहीं देखता। सांपों को भी मैं देखता हूं, मुझे उनमें कोई शैतान नहीं दिखाई पड़ता। उनमें भी संत हैं और शैतान हैं, जैसे हम में भी संत और शैतान हैं।’
खबर फैल गई कि वह नेवला वस्तुत: सांप ही है। सांपों की तरह रेंगता है और उससे सावधान रहना। क्योंकि शक्ल उसकी नेवले की है और आत्मा सांप की है। बड़े-बूढ़े इकट्ठे हुए, पंचायत की और उन्होंने आखिरी बार कोशिश की नेवले को समझाने की, `तू पागलपन मत कर।’ उस नेवले ने कहा, `लेकिन सोचना-समझना तो जरूरी है।’ एक नेवला भीड़ में से बोला, `सोचना-समझना गद्दारी है।’ दूसरे नेवले ने कहा, `सोचना-समझना दुश्मनों का काम है, `भीड़ से आवाज आयी, सोचना समझना हमारी परंपराओं के विरुद्ध है! फिर जब वे उसे न समझा पाये तो उस नेवले को उन्होंने फांसी दे दी। जेम्स थरबर ने अंतिम वचन इस कहानी में लिखा है, कि यह शिक्षा मिलती है कि अगर तुम अपने दुश्मनों के हाथ न मारे गए, तो अपने मित्रों के हाथ मारे जाओगे। मारे तुम जरूर जाओगे। समाज भीड़ के मनोविज्ञान से जीता है। समाज में सत्य की चिंता किसे भी नहीं। दूसरों से सहमति बनी रहे इसकी ही चिंता है। समाज के साथ व्यक्ति वैâसे समायोजित रहे, एडजस्टेड रहे, इसकी ही चिंता है। समाज झूठ हो तो व्यक्ति को भी झूठा हो जाना पड़ता है। व्यक्ति बहुत अकेला है। समाज बड़ा है। चारों तरफ वे ही लोग हैं। उनसे जरा भी तुम भिन्न हुए कि तुम पागल हो। जेम्स थरबर की इस किस्सागोई में आप आधुनिक भारत को देखिए। झूठों के गिरोह के प्रचार-प्रसार का इतना प्रभाव है कि हर किसी को किसी भी झूठ से ऐतराज नहीं है। चाय बेचने के काल्पनिक कथानक का अचानक २०१३-१४ में बनना और मगरमच्छ से लड़ने की वीरगाथा परोसना इसी भीड़ के मनोविज्ञान की अवैध कृति है। बीजगणित के प्रसिद्द फार्मूले में से दो अतिरिक्त अ±ब मिलने के नए सूत्र पर भी किसी को ऐतराज नहीं और इस बात पर भी ऐतराज नहीं कि जिसकी नीतियों ने आम भारतीय को मंगलसूत्र खरीदने लायक नहीं छोड़ा, जो खुद मंगलसूत्र की मर्यादा तोड़कर भाग खड़ा हुआ, वह देश की मां-बहनों के मंगलसूत्र की रक्षा पर भाषण ठेल रहा है। जहां ८० करोड़ देशवासियों को भिखमंगा बनाकर पांच किलो राशन की खैरात को उपलब्धि बताकर गौरव के भाव प्रस्फुटित होने लगें, तब भीड़ का मनोविज्ञान संबंधित गिरोह के समर्थकों-प्रशंसकों की प्रज्ञा का हरण कर लेता है। अब एक नया जुमला छोड़ा गया है कि साहब को लगता है कि भले ही उनका भौतिक-जैविक जन्म मां के गर्भ से हुआ हो, लेकिन वे कोई दैवीय घटना (कृपा नहीं) का परिणाम हैं, नतीजा है कि उनका छर्रा उन्हें भगवान का भी भगवान निरुपित कर देता है, लेकिन भीड़ की आस्था को ठेस नहीं लगती। सामाजिक-धार्मिक मुद्दों पर वैचारिक दोगलेपन झूठे समाज का आदर्श बन गया है। विडंबना यह है कि इस झूठे समाज का विरोध करने वाले देशद्रोही कहे जाते हैं। हम नेवले बन गए हैं, जो सदियों पहले हुए कथित अनाचार-दुराचार का बदला वर्तमान से लेने के लिए जिये-मरे जा रहे हैं। जिन्होंने अत्याचार किए और जिन्होंने अत्याचार सहे, वे दोनों इतिहास दोहराने को आतुर हैं और साथ में हम ‘सर्वे भवन्ति सुखिन:’ का जाप भी कर रहे हैं।