मुख्यपृष्ठनमस्ते सामनाग़ज़ल : मुस्कुराना जानती थी माँ

ग़ज़ल : मुस्कुराना जानती थी माँ

ग़मों की भीड़ में भी
मुस्कुराना जानती थी माँ
ख़ुशी की नींद बच्चों को सुलाना जानती थी माँ

कभी आँखों से जब आँसू छलक आते थे बच्चों के
उन्हें मीठी सी बातों से हँसाना जानती थी माँ

भले रोटी नहीं पूरी मिली उसको कभी ग़र तो
कमी हर चीज़ की घर में छुपाना जानती थी माँ

शजर जब सूख जाते घर की ख़ुशियों के ग़मों से ,तब
बरस कर बारिशों सी
लहलहाना जानती थी माँ

कभी जब जेब ख़ाली हो ‘कनक’ तो जान लेती थी
खनक सिक्कों की लेकर
आज़माना जानती थी माँ

डॉ कनक लता तिवारी

अन्य समाचार