राजन पारकर
भारत में डॉक्टरों को एक समय में भगवान का रूप माना जाता था, लेकिन अब लगता है जैसे उन्होंने स्टेथोस्कोप को वैâश मशीन से बदल लिया है। पहले इलाज सेवा होती थी, अब यह सीधा व्यापार हो गया है और वो भी ऐसा, जिसमें ग्राहक (रोगी) चाहे मरे या जिए, पैसा तो मिल ही जाता है।
संसदीय समिति ने ९ मार्च २०१६ को बताया कि भारत की स्वास्थ्य व्यवस्था बर्बादी की ओर जा रही है। ये ठीक वैसा है जैसे कोई कुएं में गिर जाए और ऊपर से कोई चिल्लाए–‘सावधान रहो!’ अरे भाई, अब क्या सावधानी?
एक न्यूज चैनल के अनुसार, भारत में ४४ प्रतिशत ऑपरेशन फर्जी हैं। सोचिए, डॉक्टर के पास मरीज पहुंचा और बिना कारण चीरफाड़ शुरू। जैसे कसाई ने बकरा देखा हो! ५५ प्रतिशत हार्ट सर्जरी भी अनावश्यक- मतलब दिल से ज्यादा डॉक्टर की जेब को धक्का लगता है।
गर्भाशय, वैंâसर, घुटना, कंधा, रीढ़ की हड्डी-ये सब अब शरीर के अंग नहीं रहे। ये डॉक्टरों के लिए ‘कमाई के साधन’ बन चुके हैं। रोगी चाहे बिलकुल ठीक हो, डॉक्टर उसकी रिपोर्ट में ऐसी एंट्री करता है जैसे होटल वाला प्रâी में आए ग्राहक के बिल में समोसा जोड़ दे।
महाराष्ट्र में एक सीनियर डॉक्टर का वेतन सालाना एक करोड़ रुपए है-ये सुनकर तो भगवान धन्वंतरि भी सोच में पड़ जाएं। और मृत रोगी का इलाज करके बिल वसूल करना? ये तो चिकित्सा नहीं, लूट है! एक अस्पताल ने १४ साल के मृत बच्चे को महीनों वेंटिलेटर पर रखकर लाखों का बिल थमा दिया। इसे इलाज कहें या अत्याचार?
बीमा यानी इंश्योरेंस, नाम सुनते ही राहत मिलती है, पर क्लेम करते वक्त लगता है जैसे बिच्छू ने डंक मारा हो। अस्पताल और बीमा कंपनियों का रिश्ता वैसा ही है जैसा शिकारी और उसका जाल, मरीज बीच में फंस जाता है।
मेडिकल काउंसिल ऑफ इंडिया (एमसीआई) नियम बनाती है, पर जब डॉक्टर नियम तोड़ते हैं, तब ये संस्था ‘मूक दर्शक’ बन जाती है। जैसे ट्रैफिक पुलिस किसी एक्सीडेंट को देख रही हो और इंस्टाग्राम पर लाइव जा रही हो!
दवा कंपनियां डॉक्टरों को विदेश यात्राएं, मोटा कमीशन, होटल में ठहरने की सुविधा देती हैं-बस उनके प्रोडक्ट लिख दो! डॉक्टर अब इलाज नहीं करते, वे सौदे करते हैं।
‘रोगी देवता है’ ये भाव अब किताबों में रह गया है। अब तो रोगी एक ‘कमाई का अवसर’ है। डायग्नोसिस का मतलब बीमारी की पहचान नहीं, बल्कि डॉक्टर के कमीशन की शुरुआत बन गया है।
तो क्या कोई रास्ता है? हां, रास्ता है, जनता की जागरूकता और डॉक्टरों की आत्मशुद्धि। वरना वे दिन दूर नहीं जब लोग डॉक्टरों से दवा नहीं बल्कि उन्हें सबक देना शुरू कर देंगे। वह भी ‘डोज मर्ज के हिसाब से’ नहीं, बल्कि ‘सूद समेत’!