मुख्यपृष्ठस्तंभमेहनतकश : धोखा देनेवाली तकदीर ने अंतत: दिया साथ

मेहनतकश : धोखा देनेवाली तकदीर ने अंतत: दिया साथ

रवींद्र मिश्रा

फिल्म ‘सेहरा’ का ‘तकदीर का फसाना जाकर किसे सुनाएं इस दिल में जल रही हैं अरमान की चिताएं…’ गीत दिलीप मिश्रा पर एकदम फिट बैठता है। अपने बीते दिनों को याद कर दिलीप कहते हैं कि अवध विश्वविद्यालय से एमए की डिग्री प्राप्त करने के बाद मैंने सरकारी नौकरी का सपना देखा। जहां भी सरकारी नौकरी का वॉन्ट निकलता मै उसे भरकर उसकी प्रतीक्षा करता। ऐसा करते हुए समय बीतता चला गया। मेरीr बहन और जीजाजी दिल्ली में रहते थे। एक दिन उनसे चर्चा होने पर उन्होंने कहा कि दिल्ली आ जाओ। उनके कहने पर मैं अपने पैतृक गांव धनियामऊ, जौनपुर से दिल्ली के लिए रवाना हो गया। गाड़ी में बैठने के साथ ही तरह-तरह के सपने मन में आने लगे कि मैं दिल्ली जीजाजी के पास जा रहा हूं। वहां एक अच्छी नौकरी मिल जाएगी और मैं भी कुछ बन जाऊंगा। खयाल आते और जाते रहे। विचारों में डूबे-डूबे कब दिल्ली आ गई पता ही नहीं चला। स्टेशन पर उतरने से पहले प्रâेश होने के लिए मैं शौचालय चला गया। जब वहां से लौटा तो मेरी अटैची गायब थी। डिब्बा दर डिब्बा तलाशता रहा, लेकिन मेरा सामान मुझे नहीं मिला। अटैची में रखे रुपए-पैसे के जाने से कहीं ज्यादा गम अटैची में रखे मेरी मार्कशीट, डिग्री तथा अन्य जरूरी कागजात के साथ ही मेरी बहन के घर के उस पते का था, जहां मुझे पहुंचना था। तकदीर ने यहां भी मेरे साथ खिलवाड़ कर दिया। मैं पागलों की तरह यहां-वहां भटकता रहा। पांच दिन बाद मेरी बहन तथा बहनोई मुझे ढूंढने दिल्ली स्टेशन आए। हुआ यह कि जिस चोर ने अटैची चुराई थी उसने अपने काम की चीज निकालकर कागजों को सड़क पर फेंक दिया। किसी सज्जन की नजर सर्टिफिकेट के साथ ही मार्कसीट पर पड़ी और उन्होंने उस पर लिखे नंबर पर संपर्क किया। बाद में घर वालों ने मेरी बहन को फोन किया और वे लोग मुझे लेने आए। फिर हम लोग उन सज्जन के घर गए, जिन्होंने फोन कर जानकारी दी थी। सारे कागजात मिलने के बाद नौकरी की तलाश शुरू हुई। बिहार के एक झा बाबू कॉल सेंटर चलाते थे। छह महीना काम करवाने के बाद जब उन्होंने वेतन नहीं दिया तो मैं वहां से नौकरी छोड़कर मुंबई आ गया। मुंबई के अंधेरी इलाके में मेरी बहन की देवरानी रहतीं थीं, जिनके घर मैं आ गया। मुझे एक दवा कंपनी में एमआर की नौकरी मिली। पांच साल काम किया। गांव से पत्नी तथा बेटे को बुला लिया और नालासोपारा में किराए का कमरा लेकर रहने लगा। इस बीच देश में कोरोना पैâल गया। तकदीर ने फिर वही खेल खेला। मेरी नौकरी चली गई, लेकिन पत्नी ऋतु ने मेरा साथ दिया। उसने नेल पॉलिश बनाने वाली कंपनी में नौकरी कर ली। अब हम दोनों मिलकर मेहनत करने लगे। तकदीर ने अब मेरा साथ दिया और नौकरी छोड़कर अपना व्यवसाय शुरू किया। किराए की दुकान लेकर नालासोपारा में किराना स्टोर खोल लिया। आज हमारे पास खुद का मकान है और दुकान खरीदने की तैयारी चल रही है। शायद इसीलिए लोग कहते हैं कि तकदीर का खेल कब बदल जाए, यह कोई नहीं जानता।

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