अमर झा
परिस्थितियां भले ही अनुकूल न हों, परंतु मंजिल पाने की जिद अंतत: सफलता दिलवा ही देती है। ऐसे ही कठिन परिस्थितियों का सामना करते हुए डॉक्टर की पढ़ाई करनेवाले डॉ. मोहन विशंभर झा बताते हैं कि मैं बिहार के मोतिहारी जिला के भंडार गांव का रहनेवाला हूं। स्कूली पढ़ाई अपने गांव के स्कूल से करने के बाद मैट्रिक की परीक्षा पास कर आगे की पढ़ाई के लिए १९९१ में मुंबई में अपने पिता के पास आ गया। एक साधारण सी नौकरी करनेवाले पिता की मासिक आय काफी कम थी। आय काफी कम होने के बावजूद पिताजी हम बच्चों को ऊंची शिक्षा के लिए हमेशा प्रेरित करते थे। मुंबई आने के बाद मैंने बारहवीं की परीक्षा पास करने के बाद आगे की पढ़ाई कर्नाटक से की। आर्थिक स्थिति बहुत अच्छी न होने के बावजूद पढ़ाई का सारा खर्चा पिताजी उठाते रहे। खैर, अपनी डॉक्टर की पढ़ाई पूरी करने के बाद मैं कर्नाटक से मुंबई आ गया और यहां स्थित छोटे-छोटे अस्पतालों में अपनी सेवा देने लग गया। समय अपनी रफ्तार से चलता रहा और मुझे मीरा रोड स्थित एक बड़े अस्पताल में काम करने का मौका मिल गया। उस अस्पताल में १८ बरस तक काम करने के बाद मैंने खुद का अस्पताल खोलने की ठानी। २०२१ में मैंने कुछ और साथी डॉक्टरों के साथ मिलकर मीरा रोड के एनएच स्कूल रोड पर ‘भक्तिलोक’ नाम से एक अस्पताल शुरू किया, लेकिन कुछ महीने बाद ही हमारे पार्टनर एक-एक कर अस्पताल से अलग हो गए। हालांकि, अकेला होने के कारण आर्थिक स्थिति प्रभावित हुई, लेकिन अंतत: धीरे-धीरे सब कुछ पटरी पर आ गया। अपने पिताजी की तरह मैंने भी यह सोच रखा था कि अपने दोनों बच्चों को डॉक्टर बनाऊंगा। मेरे सपनों को पूरा करने में मेरी पत्नी रजनी झा ने भरपूर मेहनत की। रजनी ने लॉ की पढ़ाई पूरी की, लेकिन प्रैक्टिस छोड़ हाउस वाइफ बनकर बच्चों को पढ़ाने में ध्यान दिया। रजनी और बच्चों की मेहनत रंग लाई। आज मेरे दोनों बच्चे बेटा लोकेश झा और बेटी भक्ति झा एमबीबीएस की अंतिम वर्ष की पढ़ाई कर रहे हैं और पत्नी अस्पताल के सीईओ का पद संभाल रही है। बचपन से ही सामाजिक कार्यों में मेरी रुचि रही है। आज व्यस्त जीवन होने के बावजूद मेडिकल वैंâप लगाकर लोगों को मुफ्त चिकित्सा देता हूं, जिसमें आंखों का ऑपरेशन, जनरल सर्जरी, थाइराइड, डाइबिटीज के इलाज के साथ-साथ मुफ्त दवाई वितरण भी करता हूं।