- आनंद श्रीवास्तव
सातारा के तालुका फलटण से मुंबई के धारावी में रहने आए नारायण बागड़े को आप किसी भी समय सायन हॉस्पिटल के बाहर एंबुलेंस में बैठे पाएंगे। एंबुलेंस के माध्यम से पिछले ३० सालों से अपनी २४ घंटे की सेवा प्रदान कर रहे नारायण बागड़े को इसी में आनंद का अनुभव होता है। कोई सीरियस पेशेंट हो या दुर्घटना में घायल व्यक्ति या फिर डेड बॉडी, वह अक्सर अकेले ही ले गए हैं। उन्हें न तो कोई झिझक महसूस होती है और न ही किसी बात का डर। कोरोना काल में अकेले ही कई डेड बॉडी को अंतिम संस्कार के लिए ले गए हैं। कई बार उन्होंने डीजल का खर्च भी अपनी जेब से ही किया है। फिलहाल, ३-४ वर्षों से नारायण बागड़े अपने परिवार के साथ पुणे शिफ्ट हो गए हैं, लेकिन अभी भी रोजाना मुंबई अस्पताल के बाहर चले आते हैं। वैसे तो कॉल आने पर उन्हें मरीज को लेकर देश के कई हिस्सों में जाना पड़ता है, परंतु उनकी पसंदीदा जगह मुंबई ही है। वैसे एंबुलेंस उनका दूसरा घर हो गया है। इसी में सोते हैं व खाते-पीते हैं। कोई दूसरा काम क्यों नहीं करते? इस सवाल के जवाब में बागड़े का कहना है कि अब वह एंबुलेंस सेवा के सिवाय दूसरे किसी काम के बारे में सोच ही नहीं सकते हैं।
नारायण बागड़े के एंबुलेंस चलाने की शुरुआत कैसे हुई, इसकी कहानी बड़ी दिलचस्प है। ३० साल पहले जब वे धारावी में रहते थे, तब शिवसेनाप्रमुख बालासाहेब ठाकरे के मार्गदर्शन में धारावी के तत्कालीन नगरसेवक बाबूराव माने ने पहली एंबुलेंस लाई थी, उनके पास ड्राइवर नहीं था। बाबूराव माने के समर्थक और कट्टर शिवसैनिक नारायण बागड़े को ड्राइविंग आती थी। इसलिए बाबूराव माने ने एंबुलेंस चलाने की जिम्मेदारी बागड़े को सौंप दी। तब से उनका और एंबुलेंस का चोली-दामन का साथ हो गया। उसी समय से शुरू बागड़े की यह एंबुलेंस सेवा आज तक निरंतर जारी है।
नारायण बागड़े बताते हैं कि उनके इस कार्यकाल में कई भावनात्मक क्षण भी आए हैं। कोरोना काल में एक विधायक की मौत हो गई थी। उनके शव को उठाने तक के लिए कोई आगे नहीं आ रहा था, तब बागड़े ने शव को उठाकर एंबुलेंस में रखा और श्मशान तक ले गए। घायलों को अस्पताल तक या अस्पताल से उनके घर तक पहुंचाने में कई बार पैसे नहीं मिलते। घायल व्यक्ति कहां से पैसे देगा? ऐसे समय में कई बार नारायण बागड़े ने डीजल का खर्च खुद ही उठाया है।
आधुनिकता के युग में उनकी रोजी-रोटी पर असर पड़ा है। नारायण बागड़े के पास सादा पुराना मोबाइल फोन है, इसलिए उन्हें ऑनलाइन कॉल नहीं आता। कई बार आठ-आठ दिन तक वह एंबुलेंस में बैठे-बैठे लोगों का इंतजार करते रहते हैं, लेकिन कोई नहीं आता। ऐसे में उनकी जेब में खाना खाने के भी पैसे नहीं रहते हैं। यदि उनके पास एनडराइड फोन होता और वे उसे चलाना जानते तो आज नारायण बागड़े और भी व्यस्त रहते।