प्रभाकर सिंह
रोजी-रोटी जहां लिखी रहती है, वहां नसीब अपने आप खींचकर ले जाता है। आज से करीब ४५ वर्ष पहले १४ वर्ष का लड़का अपने रिश्तेदार के पड़ोसी पंडित जी के साथ चुपके से प्रतापगढ़ से मुंबई के सायन में आ गया और पंडित जी ने अपने साथ ही पान की दुकान पर रख लिया, तब से लेकर आज तक यह शख्स मायानगरी का ही बनकर रह गया और अब वृद्धावस्था की दहलीज पर भी कदम रख चुका है। बीते दिनों को याद करते हुए जगत पान वाले कहते हैं कि भले ही मैं पान की दुकान चलाता हूं, लेकिन अपने स्वाभिमान को कभी डगमगाने नहीं दिया। यह सब जो आज तक संभव हो पाया है वह बजरंग बली की कृपा से ही हुआ है।
जगत सिंह कहते हैं कि उस वक्त मैं करीब १४ साल का था और सातवीं में पढ़ रहा था। छमाही परीक्षा के बाद अपनी बहन के यहां घूमने गया था, जिनकी शादी हमारे ही जिले में हुई थी और वहीं के एक पंडित जी के कहने पर १९७८ में उनके साथ ही मुंबई आ गया। उनके कहने पर उनकी पान की दुकान पर ही काम करने लगा, उसके दो साल बाद घर गया। तब से लेकर आज तक हमको जीवन में इस मायानगरी में इज्जत की रोटी भी मिली और छत भी। शुरू से आज तक हमने पैसे से ज्यादा दूसरे के मान-सम्मान को तवज्जो दी। आज उसी का प्रतिफल है कि हमारे दोनों लड़के और एक लड़की सुशिक्षित हैं। धीरे-धीरे अपनी इच्छानुसार नौकरी के लिए प्रयासरत हैं। यह बात अलग है कि हम अपनी मर्जी से शिक्षा ग्रहण नहीं कर पाए।
पुराने दिनों को याद करते हुए वे बताते हैं कि लोगों के साथ प्रेम भाव का ही फल है कि शुरुआत में हमारे बच्चे जिस स्कूल में पढ़ते थे, उसी स्कूल के चतुर्थ श्रेणी के एक नेक कर्मचारी साल भर हमारे बच्चों को अपने साथ स्कूल ले जाते और लाते रहते थे। वे आगे कहते हैं कि हमारी संगत भी सदा अच्छे लोगों की रही। कई वर्ष पहले की बात को याद करते हुए उन्होंने कहा कि एक पंडित जी थे, जो धारावी में रहते थे, उनका एक फ्लैट था, जो मुझे देना चाह रहे थे। उस वक्त उन्होंने कहा था कि धीरे-धीरे पैसा देना, तुम सस्ते में हमारा प्लैट ले लो। लेकिन हमने उनका शुक्रिया अदा करते हुए मना कर दिया और अपने स्वाभिमान को बनाए रखा।
वे आगे बताते हैं कि अगर ऊपर वाले की कृपा है तो सब काम आसानी से होते जाते हैं। यह कलयुग है अपने किए का फल अपनी आंखों से ही देखने को मिल जाता है। बहरहाल, कुछ सालों में बच्चों की जिम्मेदारी पूरी होने के बाद अपने गांव में जाकर खेती करके समाज में सुकून से रहेंगे।