अशोक तिवारी
कहते हैं कि इंसान के सर्वप्रथम गुरु उसके माता-पिता होते हैं। माता-पिता अपने बच्चों में जैसे संस्कार डालते हैं बच्चे भी जीवन में उसी को अपना लेते हैं। उत्तर प्रदेश के भदोही जिले के ज्ञानपुर तहसील के रहने वाले सुनील कुमार शुक्ला अपने पिता को अपना प्रथम गुरु मानते हैं और उनके आदर्शों पर चलकर आज समाज की सेवा कर रहे हैं। सुनील कुमार शुक्ला के पिता दयाशंकर शुक्ला वर्ष १९८० के दशक में मुंबई आए थे। यहां पर वे मनपा के स्कूल में अध्यापक के पद पर नियुक्त हो गए। घाटकोपर के असल्फा में रहने वाले सुनील कुमार शुक्ला का परिवार वर्ष १९९२ के दंगों की त्रासदी का शिकार बना, जिसकी वजह से उन्हें घाटकोपर छोड़कर ठाणे के डोंबिवली में शिफ्ट होना पड़ा। एक हफ्ते तक सुनील कुमार शुक्ला के परिवार ने एक पंजाबी व्यक्ति के यहां शरण ली थी। सुनील कुमार शुक्ला ने जीवन के शुरुआती दिनों में एलआईसी एजेंट तथा मेडिक्लेम का काम करने लगे। उसके बाद उन्होंने २००२ में मैकेनिकल इंजीनियरिंग की परीक्षा पास की और अपना खुद का बिजनेस करने लगे। वर्ष २००८ में सुनील कुमार शुक्ला ने रियल इस्टेट का कारोबार शुरू किया जो अच्छा खासा चल निकला। इसके बाद सुनील कुमार शुक्ला को ‘रेलवे प्रवासी संघ’ का सचिव बनाया गया। वे रेल यात्रियों की तमाम समस्याओं को न केवल रेलवे प्रशासन के सामने लाए बल्कि उन समस्याओं को उजागर करते हुए उन्हें निपटाने का भी प्रयास करते थे। कोरोना काल में लॉकडाउन के दौरान सुनील कुमार शुक्ला ने रेल यात्रियों और रेलवे की सुरक्षा में तैनात पुलिसकर्मियों को हजारों की संख्या में सैनिटाइजर और मास्क किट का वितरण कराया। रेल यात्रियों का टिकट कनफर्म करने के लिए प्रशासन से संघर्ष करते रहे। सुनील कुमार शुक्ला बताते हैं कि कोरोना के दौरान उन्होंने कई यात्रियों को फ्लाइट से उत्तर प्रदेश भेजा है। सुनील कुमार शुक्ला वर्ष १९९६ से सोरायसिस जैसी गंभीर बीमारी से जूझ रहे हैं, जिसके लिए वे २३ बार अस्पताल में एडमिट हो चुके हैं। कोरोना के दौरान डोंबिवली में गरीब जनता को राशन, दवाइयां तथा कोरोना किट बांटकर सुनील कुमार शुक्ला काफी चर्चा में आए थे। सुनील का मानना है कि प्रत्येक व्यक्ति को अपनी कमाई का कुछ हिस्सा समाज सेवा के लिए जरूर अर्पण करना चाहिए।