अनिल तिवारी
एक समय था जब समाचार पत्र-पत्रिकाओं का बेहद महत्व हुआ करता था। हम जब छोटे थे, तब हमें खासतौर पर यह हिदायत मिलती थी कि देश-दुनिया को जानने के लिए समाचार पत्रों का नियमित पठन करें। अभिभावकों से लेकर गुरुजनों तक की यही सीख होती थी। शायद यही वजह थी कि तब घर से बाहर निकलते ही जगह-जगह समाचार पत्रों के स्टॉल दिख जाते थे। गली-नुक्कड़ों से लेकर फुटपाथ पर बने वाचनालयों तक लोगों का जमावड़ा लगा रहता था। हर कोई, कुछ-न-कुछ लेकर पढ़ता नजर आता था, परंतु गत कुछ वर्षों में वह चित्र लगभग लुप्त-सा हो गया है तो क्यों? इस पर मंथन बेहद जरूरी है। स्वतंत्रता के इस अमृत काल में यदि इस पर चर्चा नहीं हुई तो आनेवाली पीढ़ियों को हम केवल मशीनी भविष्य देने के अलावा कुछ नहीं दे पाएंगे। उनका बौद्धिक विकास लगभग खत्म हो चुका होगा और उसके जिम्मेदार हम और हमीं होंगे।
आज नुक्कड़-चौराहों से समाचार पत्रों के स्टॉल गायब हो चुके हैं। अब फुटपाथ के वाचनालयों पर इक्का-दुक्का बुजुर्गों के अलावा कोई नजर नहीं आता। मुनाफाखोरी में अंधी हो चुकी केंद्र सरकार ने भी रेलवे प्लेटफॉर्म पर बने समर्पित बुक स्टॉल्स को मल्टीपर्पज स्टॉल्स में बदल दिया है क्योंकि उन्हें भी मुनाफे की दरकार है। कभी देश के नीति नियंताओं की यह सोच थी कि लेखन-पठन, खान-पान जितना ही मत्वपूर्ण है इसीलिए शायद बुक स्टॉल्स को भी फूड स्टॉल के जितना ही महत्व दिया गया था। सार्वजनिक स्थलों पर समाचार पत्रों के स्टॉल्स को जगह देना, इसी सोच का हिस्सा था कि लोग ज्यादा से ज्यादा पढ़ें, तभी देश का विकास होगा। इसीलिए हिंदुस्थान के छोटे से छोटे रेलवे स्टेशन से लेकर शहरों के तमाम बस अड्डों तक प्रमुखता से बुक स्टॉल्स को जगह दी जाती थी।
समय बदला, सियासी शख्सियतें बदलीं तो सोच भी बदल गई। अब पढ़ने की बजाय व्यापार प्राथमिकता बन गई है। लिहाजा, अब बुक स्टॉल को फूड स्टॉल्स में तब्दील करके पठन सामग्री को एक कोने में धकेल दिया गया है। व्हीलर के स्टॉल्स बिस्कुट-चॉकलेट और कोल्ड ड्रिंक्स बेचने में मशगूल हैं। बौद्धिक आवश्यकता पर बाजारवाद हावी हो गया है। हर जगह कोल्डड्रिंक्स, फास्ट फूड और खाद्य सामग्रियां बिकती नजर आती हैं। नतीजे में अब प्लेटफॉर्मों पर कोई अखबार न तो बिकता नजर आता है, न ही कोई खरीदता। नॉलेज के ‘हाट’ पर मुनाफे का कब्जा हो गया है। यही आज की हॉट न्यूज है। यही आज की ब्रेकिंग न्यूज है कि अब ब्रेकिंग चलानेवाले भी पक्षपाती हो गए हैं। मतलब इस बाजार में अब कुछ मीडिया हाउस या टेलीविजन एंकर-रिपोर्टर, जिनका नजरिया भेदभाव पूर्ण है, अब उन्हें तरजीह दी जाती है। जबकि निष्पक्ष रिपोर्टिंग करनेवालों को बाहर का रास्ता दिखा दिया जाता है।
इलेक्ट्रॉनिक मीडिया तो ‘गोदी’ मीडिया बन गया पर जो प्रिंट मीडिया संपूर्ण ‘गोदी’ नहीं बन सका तो उसकी राह ही कंटीली कर दी गई। पाठकों तक उनकी पहुंच ही बाधित कर दी गई। उस शाखा को काटने का प्रयास किया गया जो पीढ़ियों में बौद्धिक बल भरती है, उन्हें विचार देती है, अच्छे-बुरे का फर्क समझाती है और जो रियल लाइफ का सिलेबस भी कहलाती है। यह सिलेबस भी शायद धीरे-धीरे नई शिक्षा नीति का हिस्सा बनता जा रहा है। समय रहते इसे रोका नहीं गया तो देश में वैचारिक अनर्थ अटल होगा!