डॉ. राकेश पांडेय
हिंदी को देश की राजभाषा बने हुए इस 14 सितंबर को 75 वर्ष हो जाएंगे। आज़ादी के अमृतकाल के बाद अब यह राजभाषा का अमृतकाल आरंभ हो रहा है। राजभाषा विभाग की सचिव अंशुली आर्या कहती हैं कि देश में हिंदी के विकास को लेकर बहुत कार्य हुआ है, वर्तमान में तकनीकी स्तर पर भी हिंदी को समृद्ध किया जा रहा है। देश में राजभाषा का इतिहास भले ही मात्र पचहत्तर वर्ष पुराना हो लेकिन हिंदी का इतिहास सदियों पुराना है। देश में ब्रिटिश शासन स्थापित होने के बाद अंग्रेजी सरकारी कामकाज की भाषा और उच्च शिक्षा की भाषा बन चुकी थी। देश के बड़े-बड़े लोग विलायत में पढ़ने जाते थे और आमजन के लिए शिक्षा सहजता से उपलब्ध नहीं थी। देश के संस्कार में अंग्रेजियत प्रवेश कर रही थी। द इंडियन काउंसिल एक्ट ऑफ1861 के अनुसार राज्यों को उनके क्षेत्र में शांति और सुशासन के लिए कानून बनाने का अधिकार दे दिया गया। शासन में अनेक भारतीयों को शासन के सहभागी होने लगे, वे स्टेट काउंसिल के सदस्य बनाए गए। 1909 में ब्रिटिश शासन को सुधारों की आवश्यकता महसूस हुई और उन्होंने अंग्रेजी भाषा को पूरे भारत में एक रूप से लागू कर दिया, एक देश और प्रशासन की एक भाषा अंग्रेजी बन गई। लेकिन सच्चाई यह भी थी कि अंग्रेजों को जिन पर शासन करना था उनकी भाषा अंग्रेजी नहीं थी। विशाल देश में अनेक भाषाएं और बोलियां थी, अंग्रेजों के शासन के लिए यह एक सिरदर्द था। अनेक विदेशी विद्वानों ने भारतीय भाषाओं पर उस समय शोध व अनुसंधान किए हैं ताकि अंग्रेजों के लिए भारत में शासन करना आसान हो सके। तमाम स्वतंत्रता सेनानी भी अपनी भाषा की अस्मिता को लेकर सचेत थे । गांधीजी सहित अनेक आंदोलनकारियों ने भारत की विविध भाषाओं के मध्य सेतु के रूप में असंख्य जनसंख्या द्वारा बोली जाने वाली हिंदी को राष्ट्रभाषा कहना आरंभ किया और सभाओं में प्रस्ताव भी पारित हुआ। आजादी के बाद सांविधान सभा मे हिन्दी देश राजभाषा के रूप में स्थापित हुई और साथ में अंग्रेजी की सत्ता भी कायम है। हिंदी की संवैधानिक यात्रा के कुछ महत्वपूर्ण पड़ाव है, जिन पर ठहरना और मुड़ कर देखना आवश्यक है।
काउंसिल ऑफ स्टेट जिसे उच्च सदन भी कहा जाता था। काउंसिल ऑफ स्टेट का गठन ‘गवर्नमेंट ऑफ इंडिया एक्ट -1919 ‘अधीन किया गया। बाद में इस सभा का स्थान संविधान सभा ने ले लिया और भारत व पाकिस्तान के लिए दो अलग-अलग संविधान सभाएं गठित हो गई। काउंसिल ऑफ स्टेट की कार्रवाई अंग्रेजी में होती थी। भाषाई विमर्श कि दृष्टि से सन् 16 मार्च 1927 का दिन बहुत महत्वपूर्ण रहा क्योंकि इस दिन काउंसिल ऑफ स्टेट में एक संशोधन की मांग की गई कि सदस्य गण हिंदी और उर्दू में अपनी बात सदन के सामने रख सके। यह मांग सेठ गोविंद दास ने रखी थी।
इस प्रस्ताव पर मतदान में इसके पक्ष में 12 और विपक्ष में 22 वोट पड़ते हैं। जिससे यह प्रस्ताव गिर जाता है। जिन्होंने पक्ष में मतदान किया उसमें तीन मुस्लिम सदस्य, 3 बंगाली सदस्य और तीन दक्षिण भारतीय सदस्य थे। जिन्होंने विपक्ष में डाला उसमे 14 अंग्रेज थे और शेष आठ नामजद भारतीय सदस्य जिन्हें की अंग्रेजों ने ही सदस्य बनाया था। इस प्रकार यह प्रस्ताव अस्वीकृत हो गया किंतु वास्तविकता यह है कि इसी के बाद हिंदी और उर्दू को लेकर एक वातावरण बना और चर्चा आरंभ हो गई।
देश आजादी पाने की राह पकड़ चुका था। आजाद भारत के लिए एक संविधान की आवश्यकता होगी, इसके लिए संविधान सभा का गठन किया गया। संविधान सभा का गठन जुलाई माह सन 1946 में किया गया और 389 सदस्यों की संख्या निश्चित की गई थी। मुस्लिम लीग ने संविधान सभा की बैठकों का बहिष्कार किया और अलग पाकिस्तान के लिए संविधान सभा की मांग आरंभ कर दी। साथ ही हैदराबाद रियासत ने भी संविधान सभा का बहिष्कार किया। जनसंख्या के अनुपात में प्रतिनिधित्व दिया गया था, 10 लाख की जनसंख्या पर एक सदस्य के स्थान को बनाया गया था। संविधान सभा के सदस्यों की संख्या धार्मिक आधार को भी ध्यान में रखा गया था इसमें की 213 सामान्य, 79 मुसलमान एवं 4 सिख सदस्य बनाए गए थे, जिससे अनेक बहसों में भी सदस्यों के धर्म का प्रभाव दिखाई देता है। संविधान सभा ने 2 वर्ष 11 महीने 18 दिन कार्य किया, ग्यारह सत्र आहूत किए गए और जिसमें कुल 114 दिन बहस हुई। 3 जून 1947 को पाकिस्तान के लिए तक संविधान सभा गठित हुई और कुछ प्रांतों के प्रतिनिधियों को उसका विधानसभा में सदस्य बनाया गया।
एक प्रकार से 10 दिसंबर 1946 पहला ही दिन था जब संविधान सभा की कार्यवाही आरंभ हुई क्योंकि 9 दिसंबर तो तमाम औपचारिकताओं में ही बीत गया। इस दिन कार्य संचालन कार्य नियम निर्मात्री समिति की स्थापना हेतु कार्यवाही चल रही थी। जिसमें आचार्य जेबी कृपलानी से एक संशोधन स्वीकार करने हेतु बातचीत हो रही थी। बातचीत के बीच आर. वी . धुलेकर ने हिंदुस्तानी में बोला। जिस पर अस्थाई अध्यक्ष डॉक्टर सच्चिदानंद सिन्हा ने उन्हे रोकते हुए कहा की क्या वह अंग्रेजी नहीं जानते हैं? इस पर आर. वी. धुलेकर ने कहा की मैं भी जानता हूं किंतु हिंदुस्तानी बोलना चाहता हूं। अध्यक्ष महोदय ने तर्क दिया कि सभा में बहुत सारे लोग हिंदुस्तानी नहीं जानते हैं जैसे कि श्री राजगोपालाचारी को ही ले लीजिए। इस पर आर वी धुलेकर ने जो तल्खी भरा उत्तर दिया पर शायद आज की संसद में संभव नहीं है। उन्होंने कहा जो हिंदुस्तानी नहीं जानते , उन्हे हिंदुस्तान में रहने का अधिकार नहीं है। इस प्रकार संविधान सभा के पहले दिन ही भाषा पर विवाद हो गया।
संविधान सभा में 1 मई 1947 को मौलिक अधिकारों पर वाद विवाद हो रहा था। मुस्लिम लीग सांविधान सभा का बहिष्कार कर चुकी थी । सरदार वल्लभभाई पटेल अल्पसंख्यक समुदाय व मौलिक अधिकार आदि संबंधी कमेटी के सभापति थे, उन्होंने 23 अप्रैल 1947 को अपने प्रस्ताव सदन में पत्र के साथ चर्चा हेतु सभा अध्यक्ष डा. राजेन्द्र प्रसाद को प्रस्तुत किए। 2 मई, 1947 को भाषा और संस्कृति के आधार पर प्रांतों के निर्माण पर कमेटीयां गठित की है।
अध्यक्ष डा. राजेंद्र प्रसाद ने एक और चिंता व्यक्त करते हुए कहा कि मेरी चिंता में आप सब भी सहभागी बनें। सभा की सारी कार्यवाही अंग्रेजी में इसलिए चल रही है कि बहुत सारे सदस्य ऐसे हैं जो राष्ट्रभाषा से परिचित नहीं हैं। इसीलिए सारे प्रस्ताव अंग्रेजी में ही बनाए जा रहे है। प्रस्ताव में ऐसी बहुत सी बातें कही गई है कि जो कला की शब्दावली अर्थात विशिष्ट भाषा में कही जा सकती है, ये किसी अन्य विधान से ली गई है। इन विधानों में से कुछ के कानूनी भावार्थ लगाये जाते हैं और ऐसी भाषा के प्रयोग द्वारा हम उन भावार्थो की प्रक्रिया को भी अपने विधान में सम्मिलित कर रहे हैं। भविष्य में, अभी नहीं पर आगे चलकर ऐसा समय आ सकता है, जब हम संभवतः अंग्रेजी पर निर्भर नहीं रहेंगे।
भारतीय विधान परिषद की 4 नवंबर,1948 को हुई सभा में सबसे पहले अध्यक्ष ने विधान पर विचार प्रक्रिया के तौर तरीकों से सभी सदस्यों को अवगत कराया किंतु सदस्यों का ज़ोर रहा की पहले ये था होना चाहिए की हमारी भाषा क्या होगी? सेठ गोविंद दास, बालकृष्ण शर्मा ने आरम्भ में ही इस बात को जोरदार तरीके से रखा कि हमारी राष्ट्रभाषा हिंदी हो और लिपि देवनागरी हो। सेठ गोविंददास ने विधान को अंग्रेजी में लाने पर सवाल उठाया और अध्यक्ष को सदस्यों ने उनके द्वारा दिए गए आश्वासन की भी याद दिलाई। अध्यक्ष डॉक्टर राजेंद्र प्रसाद ने भी सभी सदस्यों को स्पष्टीकरण देकर आश्वस्त करने की बहुत कोशिश की। यह पूरी चर्चा संविधान सभा में महत्वपूर्ण है।
भारतीय विधान परिषद की 8 नवंबर 1948 को हुई सभा में राष्ट्रभाषा अथवा देश का कामकाज करने के सवाल पर हिंदी, हिन्दुस्तानी, उर्दू और अंग्रेजी लेकर सघन चर्चा हुई। तरह तरह की मतभेद भी उभरे, अधिकतर सदस्य उस भाषा को महत्त्व देने की वकालत करते रहे, जो सरल हो, आसानी से बोधगम्य हो और अधिक से अधिक लोगों द्वारा बोली जाती हो। इस दिन सभा की खासियत यह रही की इसमें पंडित जवाहर लाल नेहरू ने मतभेदों का होना अति स्वाभाविक बताते हुए कहा कि हम जो निर्णय करें, मिलजुल कर करें, उत्तेजना की अवस्था में अथवा जल्दबाजी में कोई निर्णय नहीं करें।
भाषा के प्रश्न पर बहस की शुरुआत 12 सितंबर, 1949 को हुई और अंत 14 सितंबर, 1949 को हिन्दी को राजभाषा के रूप में स्वीकार करके हुआ। संविधान सभा दोपहर 4 बजे अध्यक्ष डॉक्टर राजेंद्र प्रसाद की सभापतित्व में एकत्रित हुई और भाषा संबंधी संविधान का मसौदा जारी किया गया। आरंभ में ही डॉक्टर राजेंद्र प्रसाद ने सभी सदस्यों को आगाह किया की यह विषय सदस्यों के विचारों को उद्वेलित करता है इसलिए वाद विवाद में भाग लेते समय इस बात का ध्यान रखा जाए कि जो यहाँ कहा जाएगा उसका प्रभाव से पूरे देश पर पड़ेगा। इस विषय में आवेश उत्पन्न करने और भावनाओं को उत्तेजित करने के लिए कोई अपील नहीं होनी चाहिए। इस सभा में हिंदी और हिंदी भाषा सदस्यों ने हिंद को राजभाषा बनाने के साथ केंद्र में हिंदी और रोमन अंकों के उपयोग पर काफी बहस की। हिंदी के इतिहास में यह दिन काफी महत्वपूर्ण और चर्चित है। संविधान सभा में हिंदी को राजभाषा बनाए जाने के लिए तैयार मसौदे पर फॉर दस्यों ने अनेक संशोधन में पेश किए। हिंदी को राजभाषा बनाने पर लगभग सभी लोग सहमत होते दिखे लेकिन भारतीय अंकों के अंतरराष्ट्रीय स्वरूप देने पर काफी विवाद हुआ। अनेक सदस्यों ने अपनी विभिन्न मत प्रकट किए। सभा के एच गोपालस्वामी आयंगर ने इस तथ्य को उजागर किया गया संघ के सरकारी परिजनों के लिए हमने हिंदी भाषा को स्वीकार कर लिया है, फिर भी मैं ये मानना चाहिए की हिंदी भाषा काफी उन्नत नहीं है। कई दिशाओं में उसे समृद्धिशाली बनाना अपेक्षित है, उसमें आधुनिकता लाना अपेक्षित है। बहस में यह विषय भी लाया गया कि प्रथम 15 वर्ष की अवधि तक इसमें लगभग समस्त परियोजनाओं के लिए अंग्रेजी भाषा का प्रयोग होगा, इस निर्देश की मांग उठी की संघ के किसी एक अथवा अधिक योजना के लिए भारतीय अंकों के अंतर्राष्ट्रीय रूप के साथ साथ देवनागरी अंको का भी प्रयोग हो। इसके साथ ही न्यायालय मैं भाषा के प्रयोग पर भी बात की गयी। इस दिन बाद विवाद के दौरान बांग्ला, उर्दू, संस्कृत, तमिल आदि भाषाओं की चर्चा हुई पर साथ ही अंग्रेजी के महत्त्व पर भी सदस्यों ने अपने विचार रखे। तीखी बहसों के बींच मुंशी-आयंगर सूत्र के अनुसार हिन्दी देश की राजभाषा स्वीकार की गई। इस प्रकार हिन्दी राष्ट्रभाषा के स्थान पर राजभाषा बन गई और आज आज आठवीं अनुसूची की 22 भाषाओं में से हिन्दी एक है।