मुख्यपृष्ठस्तंभआतिशी पर भरोसा कितना सार्थक होगा?

आतिशी पर भरोसा कितना सार्थक होगा?

योगेश कुमार सोनी

बीते कई दिनों से देश की राजधानी दिल्ली राजनीति में सियासी भूचाल चल रहा है। केजरीवाल के जेल में रहते हुए विपक्ष लगातार उनके इस्तीफे की मांग कर रहा था। लेकिन जैसी ही केजरीवाल जेल से बाहर आए उन्होनें मुख्यमंत्री पद से इस्तीफा देते हुए आतिशी को कमान दे दी। राजनीतिज्ञ व विशेषज्ञ इसे तकनीकी रूप से सियासी दांव मान रहे हैं। एक वर्ग का मानना यह है कि मौजूदा स्थिति में केजरीवाल के पास मुख्यमंत्री रहते हुए भी सत्ता नहीं थी चूंकि कोर्ट ने उन्हें कई सर्शत शर्तों के साथ जमानत दी है, जिसमें वह अपनी शक्तियों का प्रयोग नहीं सकते थे। वह बिना एलजी सहमति के बिना मुख्यमंत्री कार्यालय या दिल्ली सचिवालय नहीं जा सकते थे व एलजी के बिना सहमति के किसी सरकारी फाइलों पर हस्ताक्षर नहीं कर सकते थे। इसके अलावा पब्लिक मंच से इस मामले में बयान नहीं दे सकते व साथ ही वह इस केस से संबंधित किसी गवाह से न संपर्क करेंगे न ही कोई बात करेंगे। इसके अवाला भी कई चीजें ऐसी हैं जिसके लिए वह प्रतिबंधित हैं। अब मामला यह है कि केजरीवाल ने आतिशी को कमान जिस स्थिति में दी उससे पार्टी के अंदर ही नकारात्मक व सकारात्मक दोनों तरह का ही माहौल बन गया। नकारात्मकता की स्थिति इसलिए मानी जा रही है कि पार्टी में उनसे पुराने व बडे कद के नेता भी हैं जिनको मुख्यमंत्री बनाया जा सकता था जैसे कि संजय सिंह, गोपाल राय, सोमनाथ भारती व इसके अलावा भी तमाम ऐसे कई नाम हैं लेकिन उनके नाम पर मुहर नहीं लगी।

दरअसल पार्टी के जो नेता केजरीवाल के साथ के हैं या यू कहें कि जो आंदोलन के समय से लेकर अब तक साथ हैं व उनकी वरिष्ठता आतिशी से कहीं बडी है।बहुत सारे ऐसे नेता भी हैं जो आतिशी से ज्यादा प्रभावशाली भी हैं। इस वजह से उनके खेमे के कई कार्यकर्ताओं का पार्टी से मोह भंग हो गया और बाकी शीर्ष नेता के खेमे के लोग इस बात से नाराज भी दिख रहे हैं। एक सवाल यह भी है कि आखिर बड़े नेता आतिशी को अपना बॉस क्यों माने? क्या मात्र केजरीवाल के कहने से वह यह बात समझ जाएंगे। हालांकि जब आतिशी के नाम की घोषणा कर ही दी तो अब किसी के सामने कोई विकल्प है भी नहीं लेकिन अब डर यह ही बना रहेगा कि कहीं कुछ पार्टी के कुछ सीनियर नेता नाराज न हो जाएं जिससे पार्टी में किसी भी प्रकार की आंतरिक कलह न हो जाए।देखना होगा कि पार्टी इस मामले को आंतरिक तौर पर कैसे संभालेगी। वहीं दूसरी ओर आम आदमी पार्टी यह संदेश देने का प्रयास कर रही है कि वह पार्टी के किसी भी स्तर के नेता को इतना बड़ा मौका दे सकते हैं। जिससे पार्टी के अधिकतर कार्यकर्ताओं का हौसला बढ़ सकता है। बहरहाल, आतिशी पर अब बडी जिम्मेदारी आई गई है,मौजूदा स्थिति में भी उनके पास सबसे ज्यादा विभाग हैं। विधानसभा चुनाव में अब ज्यादा समय नही है और केजरीवाल पर संकट अभी भी बरकरार है। सवाल कई हैं..क्या केजरीवाल पहले तरह ऊर्जावान होकर चुनाव लड पाएंगे और यदि इस बीच दोबारा जेल चले गए तो किसके चेहरे पर चुनाव होगा? तमाम समीकरणों में फंसी हुई है पार्टी। मुख्यमंत्री बदलना अच्छी अच्छी या बड़ी खबर नहीं मानी जा सकती,जब तक वह पार्टी को हाल ही की स्थिति से बाहर नहीं निकाल पाती। गुणवत्ता व गठबंधन का फॉर्मूला तो जनता को शायद ही समझ आए, चूंकि आम आदमी पार्टी इस पर खेल चुकी। यदि केजरीवाल ने अब आतिशी को कमान दी है तो अब उन्हें रणनीति के साथ पार्टी की छवि को सुधारते हुए काम करना होगा चूंकि मुख्यमंत्री जैसे पद की जिम्मेदारी व बेहद गंभीर व बड़ी मानी जाती है। योग्यता व अपनी आक्रामक शैली का फायदा उठाते हुए आतिशी को पार्टी को सजाना होगा व साथ ही सबको साथ लेकर कार्य करने होंगे। चुनाव में समय कम हैं और जिम्मेदारी ज्यादा। यदि इस बार कांग्रेस व आम आदमी पार्टी का गठबंधन नहीं हुआ तो त्रिकोणीय मुकाबले को लेकर चुनाव बेहद चुनौतीपूर्ण होंगे जिसको लेकर सबकी निगाह आतिशी पर ही होगी और देखना यह होगा कि वह इस कसौटी पर कितनी खरी उतरती हैं।

वरिष्ठ पत्रकार

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