मुख्यपृष्ठस्तंभकॉलम ३: कैसे थमेगा जातीय सफाए का उन्माद!

कॉलम ३: कैसे थमेगा जातीय सफाए का उन्माद!

दीपक शर्मा

केंद्र में वी.पी. सिंह सरकार जिसे भाजपा का समर्थन प्राप्त था, के समय १९९० में कश्मीर घाटी में कश्मीरी पंडितों का जो नरसंहार हुआ उसे ‘एथनिक क्लीजिंग’ जातीय सफाया माना जाता है। इस शब्द का संदर्भ बड़ा है। यह शब्द नाजी जर्मनी के समय प्रचलित हुआ था, जब हिटलर की सत्ता ने यहूदियों के सफाए का अभियान छेड़ा था। जिस समय कश्मीर घाटी में ‘एथनिक क्लीजिंग’ हो रही थी, उस समय जम्मू-कश्मीर सीधे राज्यपाल के अधीन था, जो केंद्र के प्रति जवाबदेह थे। यानी १९९० में कश्मीर घाटी में जो कुछ भी हुआ, उसमें केंद्र सरकार की एक बड़ी विफलता थी। इसे कश्मीर घाटी में किया गया ‘एथनिक क्लीजिंग’ का प्रथम प्रयोग भी कहा जा सकता है, जिसमें सरकार ने एक-दूसरे समुदाय से आंखें मूंद इस प्रकार व्यवहार किया कि जैसे उसे नरसंहार की खुली छूट दे दी गई हो।
थानों में अतिवादियों व आतंकवादियों ने कब्जे जमा लिए थे। सेना को बंकरों से बाहर आने की अनुमति नहीं थी। घाटी की सड़कों पर जो तांडव हुआ, ठीक वैसा ही आज मणिपुर में हो रहा है। मणिपुर में जो हो रहा है, वह भी कुछ वैसा ही है, जैसा कश्मीर घाटी में साढ़े तीन दशक पूर्व हुआ। जातीय सफाए की घटनाओं में यदि उत्तर प्रदेश, दिल्ली व गुजरात के दंगों को जोड़ें तो फेहरिस्त बड़ी लंबी होगी। सो, मणिपुर की हिंसा के बीच हरियाणा के नूंह में हुई हिंसा, जिसकी चिंगारी उत्तर प्रदेश व दिल्ली को सुलगा सकती थी, पर सरकार की कार्यशैली पुन: कटघरे में है। यूपी के बुलडोजर से प्रेरित भाजपा शासित राज्यों की सरकारें ‘एथनिक क्लीजिंग’ की तर्ज पर बिना सोचे-विचारे अपना बुलडोजर लेकर निकल पड़ती हैं। इसी बात को गंभीरता से लेते हुए पंजाब और हरियाणा हाईकोर्ट ने हरियाणा के नूंह में मुसलमानों के घर बुलडोजर से ध्वस्त करने की कार्रवाई पर रोक लगाते हुए सरकार से एक अहम सवाल पूछा कि क्या एक समुदाय विशेष के मकानों को ढहाकर सरकार ‘एथनिक क्लीजिंग’ कर रही है? आज के भारत में किसी संवैधानिक न्यायालय को ऐसा प्रश्न पूछना पड़े, तो यह हम सबके लिए शर्मनाक है कि क्या हम सचमुच इस कदर बदतर हालातों तक पहुंच चुके हैं? उसमें एक दर्दनाक कहानी तो एक ऐसे व्यक्ति की सामने आई है कि जिसने असल में तीन लोगों को अपने घर में छिपाकर उनकी जान बचाई थी। लेकिन बुलडोजर ने उसके आशियाने को भी नहीं बख्शा, जबकि समुदाय विशेष के जिन लोगों को वहां संरक्षण मिला था, वे पुलिस के सामने गुहार लगाते रहे कि संबंधित व्यक्ति की दंगे में कोई भूमिका नहीं थी, बल्कि उसने अपने घर में आए पीड़ितों की आवभगत करते हुए उनकी जान बचाई। जब ऐसी घटनाएं हो रही हों, तब संवैधानिक सोचवाले किसी व्यक्ति के मन में वैसा सवाल उठना लाजिमी हो जाता है, जो अब हाईकोर्ट ने पूछा है। वैसे भी बुलडोजर न्याय कानून के राज और इंसाफ के तमाम आधुनिक सिद्धांतों का खुला उल्लंघन है। इन सिद्धांतों के मुताबिक, कार्यपालिका और पुलिस खुद यह तय नहीं कर सकती कि कौन दंगाई या दोषी है? उनका काम अभियोग लगाना है, जिस पर कोर्ट कानून में तय प्रावधानों के मुताबिक निर्णय देता है। इसीलिए बुलडोजर न्याय असल में कानून के राज को ध्वस्त कर रहा है। कानून के राज का सिद्धांत सभ्यता के विकास के साथ प्रचलन में आया, जिसकी बुनियादी मान्यता है कि कानून सबसे ऊपर है और कानून की निगाह में सभी बराबर हैं। प्रश्न यही है कि क्या नूंह में इस सिद्धांत का पालन हुआ है? क्या बुलडोजर आज उसी भूमिका में नहीं जिसमें कश्मीर घाटी व मणिपुर के सरकारी प्रश्रय प्राप्त उपद्रवी, अतिवादी व आततायी थे। यहां बता दें कि अति का अंत बेशक सुनिश्चित हो, लेकिन अति शब्द मरता नहीं इसका अंत नहीं होता क्योंकि कट्टरता चाहे किसी धर्म में हो की अति हो या धार्मिक अतिवादिता इसका अंतिम स्वरूप आतंकवाद ही है।

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