व्योम के नीचे
खुला आवास मेरा
झेलता हूं मार मारुत की
निरंतर झेलता हूं
जिंदगी का सफर
हे मानव तूने ही तो बसाई है
यह पत्थरों की बस्तियां
जो कटवाई है तूने इस कदर
जंगलों कि कटाई
जो अब फर्नीचर बनकर
अमीरों की नुमाइशों में
मैं सजाया जाता हूं
मैं तो एक मजबूत पेड़ था
मजबूती से धरती को बांधकर
धरातल की गहराइयों तक
मजबूत जड़ों को पानी देकर
पर मजबूर हो गया हूं
बादलों के पानी पी रहा था
बचा पानी सूखे नदी-नालों
झरनों, पेड़ किसानों को
हरी-भरी हरियाली को देकर
खुशनुमा बना देता था
प्राणवायु की भरमार करता
पक्षियों से बातें करता था
कुछ दानवों ने मुझे
कटवाया है बिकवाया है
तभी तो बह रही हैं बस्तियां
उफान पर हैं नदियां
हैं मदमस्त निर्मल नदियां
अब उफान ले रही हैं
पेड़ों ने कहा अधिकांश पहले
मेरा स्थान नदी-नहरों
पहाड़ों-दरिया के पास था
साथ में फलों के बाग
मेरे साथ रहते थे सैकड़ों
मैं उनकी संख्या थी
जहां बच्चे-बूढ़ों की चहचहाट होती थी
और नदियों, नहरों, दरियों का अब
कटना, धंसना, बहना सब संभालता था
बस अब मजबूर हो गया हूं
क्योंकि कुछ अपने ही हाथों बिक गया हूं
दुर्दशा मेरे ही साथ नहीं
नदियों के मुंह बंद कर
मनोरंजन पहाड़ों को प्लेन कर
स्मार्ट शहर जैसा कर दिया
इसलिए बस मजबूर सा हो गया हूं
बस पानी पी तो रहा हूं
बस घुट-घुट कर जी रहा हूं
बस मैं अब मजबूर-सा हो गया हूं
पेड़ होने के नाते बिक गया हूं
– डॉ. अंजना मुकुंद कुलकर्णी,
वरली, मुंबई