यूपी में ७० फीसदी बच्चियां इलाज से वंचित
सामना संवाददाता / लखनऊ
बेटियों को पढ़ाने और उन्हें बढ़ाने के साथ ही उन्हें प्राोत्साहित करने के उद्देश्य से भाजपा द्वारा `बेटी बचाओ, बेटी बढ़ाओ’ अभियान की शुरूआत की गई थी। लेकिन अगर बेटियां बचेंगी नहीं तो भला बढ़ेंगी कैसे? ऐसे सवाल खड़े हो रहे हैं। दरअसल, भाजपा के राज में महंगाई इतनी बढ़ गई है कि महंगे इलाज के चलते बच्चों से खासकर बेटियों से उन्हीं के सगे मां-बाप सौतेला व्यवहार कर रहे हैं। आंकड़ों की मानें तो यूपी में ७० फीसदी बच्चियां इलाज से वंचित रह जाती हैं। बता दें कि प्रदेश में ७० फीसदी बच्चियों को अपने ही माता-पिता से महंगे इलाज के मामले में सौतेला व्यवहार झेलना पड़ता है। साफ है कि दौर बदला है, लेकिन बेटी के इलाज पर खर्च करने से बचने की प्रवृत्ति नहीं बदली है। ये हम नहीं बल्कि सरकारी और निजी अस्पतालों के आंकड़े कह रहे हैं।
हाल ही में एक बच्ची का मामला सामने आने के बाद प्रदेश के सुपर स्पेशियलिटी सरकारी और कॉर्पोरेट अस्पतालों के एनआईसीयू व पीआईसीयू का सर्वे किया गया।
सर्वे में यह जानकारी सामने आई कि जुलाई और अगस्त में एनआईसीयू व पीआईसीयू में भर्ती गंभीर बच्चों में औसतन ३० फीसदी ही बच्चियां थीं। निजी अस्पतालों में यह आंकड़ा २५ फीसदी है, जबकि केजीएमयू, संजय गांधी पीजीआई और लोहिया संस्थान को मिलाकर देखें तो औसत ४० फीसदी है। दूरदराज के जिलों में यह संख्या २० फीसदी से नीचे चली जाती है। लखनऊ के एक कॉर्पोरेट अस्पताल के न्यूनेटोलॉजिस्ट डॉ. आकाश पंडित बताते हैं कि कई बार एक से दो दिन में मामूली सुधार होते ही परिजन छुट्टी करा लेते हैं। हालांकि, हाइड्रोसिफलस जैसी कुछ बीमारियों में १५ से २० दिन का इलाज चले तो उन्हें बचाया जा सकता है। यही बीमारी जब लड़के को होती है तो उसके उपचार के लिए परिजन किसी भी हद तक जाने को तैयार रहते हैं।
सामाजिक सोच भी बड़ी वजह
भदोही के निजी अस्पताल में आईसीयू विशेषज्ञ डा. सुशीला बताती हैं कि मध्यम और अति पिछड़े वर्ग में बेटियों की अनदेखी आर्थिक के साथ सामाजिक सोच के कारण भी होती है। बच्चियों को आईसीयू में भर्ती करने के नाम पर लोग उसे घर ले जाते हैं, जबकि लड़के को बचाने के लिए मिन्नतें करते हैं। बच्चियों को अस्पताल में भर्ती करने के लिए कहते ही परिजन खर्च की दुहाई देने लगते हैं।