भ्रमेव जयते!

 

एक भ्रम ही तो है

कि मैं कितना ज़रूरी हूँ
घर के लिए
परिवार के लिए
समाज के लिए
राष्ट्र के लिए

जबकि
मैं ज़रूरी हूँ
सिर्फ़ अपने लिए
अपनी सुविधाओं के लिए
अपने सुख के लिए
अपने संतोष के लिए

यह भ्रम
सिर्फ़ अकेले मुझे ही नहीं
मेरे इर्दगिर्द
सभी को है
एक-सा

भ्रम के
इस अदृश्य धागे से बँधे हम
दूसरों की ज़िंदगी में अपनी अनिवार्यता /आवश्यकता
साबित करने की
जद्दोजहद को
ज़िंदगी का नाम देते हैं

और अपना नाम
सबके बीच
केंद्र में लिखते हैं
बोल्ड लेटर्स में
और उसे बचाते हैं
हवा पानी धूप से
बदरंग या धूसर होने से

इस भ्रम को
बानाए / बचाए रखने
बनाए / बचाए जाते हैं
रिश्ते नाते संबंध
रची जाती हैं
कविताएँ
खेले जाते हैं
नाटक
दिन प्रतिदिन

और इन सबके साथ
धीरे धीरे
बीतते जाते हैं हम
इस अहसास के साथ
कि हम भी ज़रूरी हैं
किसी के लिए
किसी एक के लिए

और वह एक भी
इस भ्रम को मज़बूत करता
साथ साथ
बीतता रहता है

जैसे बीतते हैं दिन
जैसे बीतती हैं रातें
जैसे बीत जाती हैं
वे तमाम बातें
जिन्हें हमने
सचमुच माना था
शाश्वत!

-हूबनाथ

अन्य समाचार