गिरमिटिया शब्द सुनते ही
मन, मस्तिष्क में आता रोष
स्मरण आ जाता अंग्रजों का आतंक
निरंकुश शासन, अत्याचार
भारतियों को दिया दर्द बेशुमार।
उपनिवेशवाद की आड़ में
भूखे, गरीब, अनपढ़ भारतीयों को रोटी और रोजी के लालच में
‘गिरमिटिया’ बंधुआ श्रमिक बना
सुदूर विदेशों में दिया ढकेल।
1879 में पहले जल पोत ‘लियोनीडास’ ने
लंगर समेटा कलकत्ता बंदरगाह से।
लम्बी यात्रा, गंदी व्यवस्था, संक्रमण झेलते
क्षुधा से कृशकाय भारतीय गुलाम श्रमजीवी
पहुंचे फिजी, त्रिनीदाद, गुयाना, सुरीनाम
कुछ अभागे पहुंचाएं दक्षिण अफ्रीका
मारिशस, सेशल्स।
वह अभागे किसी गणना में नहीं
जिनके राह में निकल गए प्राण।
गन्ने के खेतों में रात-दिन करते मेहनत हाड़तोड़
भूखे, प्यासे, खाते कोड़ों की मार।
टूट गई स्वदेश आने की आस
किंतु न टूटा सनातन धर्म से विश्वास।
पास थी ‘श्रीराम चरित मानस’
रचित महान संत श्री तुलसीदास।
वेदना पीड़ा में भूल गए गांव, पुरखों के नाम
रेलपटरियां बिछाते, गर्मी में झुलसते
‘हनुमान चालिसा’ पढ़ते जपते प्रभु का नाम
करते अपने देवी-देवता को प्रणाम।
कई पीढ़ियां खप गईं, झेलते यातनाएं मौसम दुश्वार
आज मनाएं हम ‘प्रवासी दिवस’ देते आपको सम्मान।
जहां कहीं रखें ‘गिरमिटिया’ के पूर्वजों ने अपने कदम
अपना ली वहीं की बोली और वेश-भूषा।
आओ अपनी पुरखों की धरती पर
मत समझो अपने को मेहमान
हम देते हैं आपको पूरा आदर सम्मान।
-बेला विरदी