अरुण कुमार गुप्ता
८ अगस्त १९४२ को स्वतंत्रता संग्राम के अग्रणी नेता महात्मा गांधी ने अंग्रेजों के खिलाफ ‘भारत छोड़ो’ का क्रांतिकारी नारा दिया था। इसके बाद पूरे ब्रिटिश भारत में ब्रिटेन के शासन के खिलाफ एक मजबूत भावना उभरी। इस भावना ने भारत के दूर-दराज के गांवों को भी प्रभावित किया। ब्रिटिश ‘करों’ और अत्याचार से त्रस्त आम आदमी ने गांधीजी के ‘भारत छोड़ो’ के नारे को एक नई उम्मीद के रूप में देखा। तब तक शांत रहने वाले इस्सुरु में भी अशांति फैल गई। कर्नाटक के शिवमोग्गा जिले के शिकारीपुर तालुका के एक गांव ने न केवल ‘भारत छोड़ो’ का नारा बुलंद किया, बल्कि अपने गांव की स्वतंत्रता की घोषणा भी कर दी। यह कोई साधारण घोषणा नहीं थी। उन्होंने एक प्रांतीय सरकार भी चुनी। उन्होंने अपने गांव के नेता साहूकार बसवन्ना का समर्थन किया। इस्सुरु के किसानों के इस साहसिक फैसले की गूंज पूरे देश में सुनाई दी। लेकिन आज आजादी के बाद धीरे-धीरे इस्सुरु हमारी यादों से ओझल होता गया।
कर्नाटक के तटीय शहर उडुपी से लगभग १७६ किलोमीटर दूर खेतों से घिरा शांत और सुंदर इस्सुरु गांव बसा है। आज जब देश अपना ७८वां गणतंत्र दिवस मना रहा है, तो हरे-भरे खेतों से घिरा यह शांत और सुंदर गांव १९४२ के अगस्त महीने में वैसा नहीं था। उस समय इस्सुरु गांव में खून की नदियां बह रही थीं और जली हुई झोपड़ियां बिखरी पड़ी थीं।
गांधी टोपी पहने स्वतंत्रता के प्रति जागरूक युवाओं ने वीरभद्रेश्वर मंदिर में तिरंगा फहराया। उन्होंने घोषणा की कि ब्रिटिश सरकार के अधिकारी उनके गांव में प्रवेश न करें। गांव के प्रवेश द्वार पर इस तरह के पोस्टर लगाए गए। बसवन्ना के नेतृत्व में ग्रामीणों ने अपनी सरकार की भी घोषणा कर दी। १६ वर्षीय जयन्ना (तहसीलदार) और मल्लप्पा (सब इंस्पेक्टर) को गांव का प्रशासन संभालने के लिए चुना गया। साहूकार बसवन्ना ने यह पैâसला यह कहते हुए लिया कि नाबालिग होने के कारण दोनों को जेल में बंद नहीं किया जा सकता है। इसके साथ ही, ब्रिटिश शासन का पूरी तरह से विरोध करते हुए गांव ने अपने कुछ नियम भी बनाए। इनमें से एक था ब्रिटिश अधिकारियों के गांव में प्रवेश पर प्रतिबंध।
ग्रामीणों ने औपनिवेशिक सरकार के लिए कर वसूलने आए राजस्व विभाग के अधिकारियों को ‘अंग्रेज कुत्ते’ कहकर अपमानित किया। उन्होंने अधिकारियों से उनके कागजात छीन लिए और उन्हें फाड़ डाला। गांव में तनाव की खबर अंग्रेजों तक भी पहुंची। मामले की जांच के लिए दो दिन बाद तहसीलदार, सब इंस्पेक्टर और आठ पुलिसकर्मियों सहित १० अधिकारी गांव पहुंचे। ब्रिटिश अधिकारियों के गांव में प्रवेश करने की खबर जंगल की आग की तरह पैâल गई। सभी ग्रामीण मंदिर के पास एक खुले मैदान में जमा हो गए। इस बीच, भीड़ ने तहसीलदार और सब इंस्पेक्टर को गांधी टोपी पहनने के लिए मजबूर किया। भीड़ को देखकर सब इंस्पेक्टर केंचगौड़ा ने हवा में गोली चला दी। गोली की आवाज सुनते ही भीड़ ने ब्रिटिश अधिकारियों पर हमला कर दिया। इस संघर्ष में दो ब्रिटिश अधिकारियों की मौत हो गई। चार दिन बाद, ब्रिटिश सेना ने गांव में प्रवेश किया और उन दो मौतों का बदला लेने के लिए पूरे गांव को जला दिया। ब्रिटिश सेना ने कई लोगों को गिरफ्तार कर लिया। बचे हुए लोग पास के जंगलों में भाग गए। जब मामला अदालत में पहुंचा, तो अदालत ने गुराप्पा, मल्लप्पा, सूर्यनारायणचार, हलाप्पा और शंकरप्पा पर विद्रोह का नेतृत्व करने का आरोप लगाते हुए पांच लोगों को मौत की सजा सुनाई।
मामले में मैसूर के महाराजा जयचामराज वोडेयार ने हस्तक्षेप किया। उनके प्रसिद्ध शब्द थे, एसुरु कोट्टारु इस्सुरु कोडेवु। यानी ‘हम आपको बहुत से गांव देंगे, लेकिन इस्सुरु नहीं। हालांकि, जयचामराज वोडेयार मौत की सजा पाए पांच लोगों के मामले में हस्तक्षेप नहीं कर सके, लेकिन उनके हस्तक्षेप से कई ग्रामीणों को बरी कर दिया गया। महात्मा गांधी के अहिंसा के मार्ग से भटककर हिंसा का रास्ता अपनाने वाले इस्सुरु की स्वतंत्रता की घोषणा स्वतंत्र भारत में गुमनामी में खो गई।