अरुण कुमार गुप्ता
स्वतंत्रता दिवस यानी १५ अगस्त १९४७ को दिल्ली की फिजाओं में उमंग और उत्साह का माहौल था। सड़कों पर साधु-संन्यासी भी प्रकट हो गए थे। उस दिन जवाहरलाल नेहरू के २ यॉर्क रोड (अब मोतीलाल नेहरू) मार्ग वाले घर में कुछ साधु पहुंच गए। वे नेहरू से मिले। उन्होंने उन पर पवित्र गंगा जल छिड़का, माथे पर भभूत लगाई और हाथ में मौली बांधी। धार्मिक आडंबरों से दूर रहनेवाले नेहरू ने यह सबकुछ प्रेम से करवाया। यहां बात हो रही है दिल्ली के लाल किले से जुड़े इतिहास की। मैं लाल किला हूं। हर हिंदुस्थानी मुझे जानता है। मेरा एक नाम ‘किला-ए-मुबारक’ भी है। मैं अपने देश के हर स्वतंत्रता दिवस का गवाह हूं। मैं दिल्ली के बीते लगभग ३७५ बरसों का साक्षी हूं। मैंने मुगलिया दौर का स्वर्णिम काल देखा तो इसका पतन भी। अगर हालिया दौर की बात हो तो मैं १५ अगस्त पर तिरंगे झंडों से सजी सड़कों, नारंगी, हरे और सफेद रंग से सजे चेहरों और फिजाओं में देशभक्ति के गीतों को बजते हुए देखता-सुनता हूं। दिल्ली का लाल किला गवाह है आजादी से जुड़े तमाम यादगार लम्हों का। इसने वह दौर भी देखा है जब १७३९ में ईरानी आक्रमणकारी नादिर शाह ने दिल्ली में कत्लेआम मचा दिया था। फिर १८५७ की क्रांति देखी और १९४७ में आजाद भारत की पहली सुनहरी सुबह का गवाह भी बना। लॉर्ड माउंटबेटन की बेटी पामेला ने अपनी १५ अगस्त, १९४७ की डायरी में लिखा है, ‘हमें काउंसिल हाउस (अब संसद भवन) में भारत की आजादी से जुड़ी कार्यवाही के बाद वहां से बाहर निकलने में बहुत मुश्किल हुई, क्योंकि हजारों उत्साही हिंदुस्थानी खड़े थे।
देखिए, एक बात समझ लीजिए कि मेरी तारीख की तफसील से चर्चा किए बगैर भारत के स्वतंत्रता दिवस की बात अधूरी ही मानी जाएगी। मैंने १८५७ की क्रांति के दौरान अपने सीने पर गोरे सैनिकों के बहुत-से हमलों को झेला है। मुझे करीब डेढ़ किलोमीटर की परिधि में लाल बलुआ पत्थरों और सफेद संगमरमर से बहुत प्यार से बनाया गया था। जब मेरी दीवारों के आस-पास रामलीला होती है तो आप मुझे रात के वक्त करीब से देखिए। बेशक, १८५७ के गदर का मुझसे बड़ा गवाह कौन होगा।
१६ अगस्त १९४७ की सुबह नेहरू जी और माउंटबेटन रोशनआरा बाग में पहुंचे। वहां स्कूलों के हजारों बच्चे पैरंट्स समेत मौजूद थे। देशभक्ति का कार्यक्रम जारी था। वे थोड़ी देर बच्चों के साथ रहने के बाद प्रिंसेस पार्क पहुंचे। पहले यह कार्यक्रम बना कि नेहरू जी तिरंगे का ध्वजारोहण करेंगे। उससे पहले यूनियन जैक को नीचे किया जाएगा। फिर परेड निकलेगी, पर ऐसा हो न सका। माउंटबेटन ने ‘माउंटबेटन पेपर्स’ में लिखा है कि उन्होंने नेहरू जी से बात की। तय हुआ कि यूनियन जैक को नीचे करने के बजाय सिर्फ तिरंगे को फहराया जाए। यूनियन जैक नीचे करने से भावनाएं आहत हो सकती थीं। इस पर सहमति बन गई। ध्वजारोहण के बाद राष्ट्रगान हुआ। ११ अगस्त १९४७ को नेहरू जी ने २ आईपीएस अफसरों एम.एस. रंधावा और बदरुद्दीन तैयबजी को निर्देश दिए कि जब मैं लाल किले पर झंडारोहण करूं, तब उस्ताद बिस्मिल्लाह खान की शहनाई बज रही हो। तब शुरू हुई उस्ताद की तलाश। उस्ताद घुमक्कड़ थे। १३ अगस्त, १९४७ को बनारस प्रशासन ने उन्हें गंगा किनारे अपने दोस्तों के साथ गपशप करते हुए खोज लिया। उन्हें एयरफोर्स के डकोटा विमान से सफदरजंग एयरपोर्ट पर लाया गया था। सच कहूं तो मेरे लिए १५ और १६ अगस्त १९४७ भी बेहद खास तारीखें हैं। मैं वैâसे भूल सकता हूं, जब भारत ने अंग्रेजों की गुलामी की जंजीरों से मुक्ति मिलने के बाद १५ अगस्त १९४७ को पहला स्वतंत्रता दिवस मनाया था।