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संडे स्तंभ- स्वतंत्रता दिवस पर विशेष: स्वतंत्रता संग्राम का वह निर्णायक पल!

महात्मा गांधी सहित ‘भारत छोड़ो’ आंदोलन के सभी बड़े नेता जब गिरफ्तार किए जा चुके थे, तब पुलिस के भारी बंदोबस्त के बीच अरुणा आसफ अली ने अकेले अपने दम पर मुंबई के गोवालिया टैंक मैदान में कांग्रेस का झंडा फहराया था। १९४२ के ‘भारत छोड़ो’ आंदोलन की शुरुआत इसी घटना से हुई मानी जाती है। स्वतंत्रता संग्राम की इस ‘ग्रैंड ओल्ड लेडी’ को सरकार ने ‘भारत रत्न’ से सम्मानित किया।
१९४२ के ‘भारत छोड़ो’ आंदोलन का उल्लेख होते ही जो छवियां आंखों के सामने फिर जाती हैं, उन्हीं में से एक घटना ८ अगस्त को भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस ने अपने मुंबई अधिवेशन में ‘भारत छोड़ो’ प्रस्ताव पारित करने के बाद ग्रांट रोड स्टेशन के पास एक विशाल सभा बुलाई है… इस बात से अनजान कि ब्रिटिश शासन ने धारा १४४ लगाकर इस जनसभा को अवैध घोषित कर महात्मा गांधी और जवाहरलाल नेहरू सहित कांग्रेस के सभी बड़े नेताओं को गिरफ्तार कर बाहर भेज दिया है… लोग सर्पीली कतारों में, मैदान में घुसे ही आ रहे हैं…।
‘लौट जाओ’, एक गोरा सार्जेंट लोगों को तितर -बितर होने के लिए दो मिनट का समय देता है। मायूस लौटती भीड़ धुंधली आंखों से एक नजारा देखती है…अंग्रेज सरकार के सारे अवरोधों को धता बताते हुए साड़ी पहिने कोई महिला है जो फुर्ती से मंच पर चढ़ गई है और उसने कांग्रेस का तिरंगा झंडा फहरा दिया है। यह तेजतर्रार वीरांगना है अरुणा आसफ अली और यह मैदान है गोवालिया टैंक मैदान-जो अब अगस्त क्रांति मैदान के नाम से प्रसिद्ध है।
इस घटना का हाल अरुणा आसफ अली ने अपनी किताब ‘रिसर्जेंस ऑफ इंडियन विमेन’ में इस तरह लिखा है, ‘९ अगस्त, १९४२ को पुलिस फ्लैट में घुसकर आसफ साहब (अरुणा के पति) को गिरफ्तार कर लेती है। जब पूछती हूं कि मेरा क्या? तो पुलिस कहती है, ‘आपको पकड़ने के लिए कोई वारंट नहीं है।’ अंग्रेज सार्जेंट मुझे पति को स्टेशन पर विदा करने देने के लिए राजी हो गया है।’ अरुणा आगे लिखती हैं, ‘विक्टोरिया टर्मिनस पर गिरफ्तार नेताओं को विदा करने धीरूभाई देसाई भी आए हुए हैं। लौटते वक्त अपनी कार में बैठा कर वे मुझे गोवालिया टैंक मैदान पहुंचा देते हैं। मैं फुर्ती से मंच पर चढ़ जाती हूं और कांग्रेस का झंडा फहराने के लिए डोरी खींच देती हूं। मेरे ऐसा करते ही पुलिस भीड़ पर आंसू गैस के गोले फेंकने शुरू कर देती है।’
अखबार विशेषांक छापकर नेताओं की कैद की खबर देते हैं। जिन्हें यह खबर नहीं मालूम है उन्हें यह खबर अरुणा आसफ अली देती हैं। उद्विग्न लोगों को पुलिस एक बार फिर मैदान खाली करने का फरमान सुनाती है। अर्धवृत्ताकार खड़ी देश सेविकाएं मैदान नहीं छोड़तीं, वहीं जमीन पर लेट जाती हैं। एक पुलिस अफसर आगे बढ़ता है और तिरंगा गिराने लगता है। दो युवक प्रतिरोध करते वक्त अस्पताल पहुंच जाते हैं। हर जगह विद्रोह फैल जाता है। अकेले मुंबई में नौ अगस्त से नौ सितंबर तक, महज एक महीने के भीतर निहत्थे आंदोलनकारियों पर पुलिस फायरिंग में ३४ लोग मारे गए और १४५ घायल होते हैं। बहुतेरे गिरफ्तार हुए।
नेताओं की गिरफ्तारी के तुरंत बाद मुंबई में विरोध सभाएं आयोजित करके विदेशी सरकार को खुली चुनौती देने वालों में एक प्रमुख नाम अरुणा का था। ब्रिटिश पुलिस और जासूसों ने अरुणा को खोजने के ‌लिए एड़ी-चोटी का पसीना एक कर दिया, पर उनकी हवा तक नहीं पा सकी। जब आंदोलन के सभी बड़े नेता गिरफ्तार हो चुके थे तब अरुणा उन लोगों में थीं, जिन्होंने मिलकर आंदोलन का सूत्र संभाला। वे कोलकाता, दिल्ली और दूसरी जगहों पर घूम-घूमकर भारत वासियों में आजादी के लिए जुनून पैदा करती रहीं। उन्होंने उन कांग्रेसजनों का भी पथ-प्रदर्शन किया, जो उन्हीं की तरह भूमिगत थे। इसी बीच वे समाजवादी नेता राम मनोहर लोहिया के साथ मिलकर कांग्रेस की मासिक पत्रिका ‘इनक्लाब’ का संपादन करतीं और डॉ. ऊषा मेहता और डॉ. राम मनोहर लोहिया के साथ कांग्रेस का गुप्त रेडियो स्टेशन चलाती रहीं।
गांधी का आग्रह ठुकराया
भूमिगत जीवन में इस तरह तरह-तरह के कष्ट सहते अरुणा जब इधर से उधर छिपती फिर रही थीं, तो गांधीजी ने नौ जून १९४४ को पत्र लिखकर उन्हें सलाह दी, ‘यूं भूमिगत रहकर तुम अपने प्राण मत त्यागो, समर्पण कर दो।’ अरुणा ने जीवन भर उस पत्र को संभाल कर रखा, बस गांधीजी का आग्रह ही नहीं माना। गांधीजी को उनका दो-टूक जवाब था, ‘जिस दुश्मन को अपने किए पर तनिक भी पछतावा नहीं है उसके सामने समर्पण के लिए मैं मानसिक रूप से तैयार नहीं हूं।’ अगले तीन वर्ष तक अपना पूरा जोर लगा देने के बावजूद ब्रिटिश पुलिस जब अरुणा को नहीं पकड़ पाई तो उसने उनकी संपत्ति को जब्त कर नीलाम कर दिया। १९४६ में जब उनके नाम का वारंट रद्द हुआ, तभी वे प्रकट हुईं। १९४७ में दिल्ली प्रदेश कांग्रेस कमेटी की अध्यक्षा निर्वाचित हुईं।
भगत सिंह के बम कांड की प्रत्यक्षदर्शी
आसफ अली से विवाह के बाद अरुणा, महात्मा गांधी और अबुल कलाम आजाद के संपर्क में आईं थीं। एक ओर वे वीर सावरकर, सरदार भगत सिंह जैसे क्रांतिकारियों से प्रभावित थीं तो जयप्रकाश नारायण, डॉ. राम मनोहर लोहिया, अच्युत पटवर्धन जैसे समाजवादियों से भी। उन्होंने १९३०, १९३२ और १९४१ के नमक सत्याग्रह और अन्य आंदोलनों में जेल की सजाएं भोगीं। ८ अप्रैल, १९२९ को जब भगत सिंह और बटुकेश्वर दत्त ने सेंट्रल असेंबली में बम फेंका था, उस समय आसफ अली दंपति विशिष्ट दीर्घा में मौजूद था। आसफ अली ने बाद में दिल्ली जिला जेल में भगत सिंह का मुकदमा भी लड़ा था। जेलों में रहते हुए राजनीतिक बंदियों को संगठित करने के साथ वहां वैâदियों के साथ हो रहे दुर्वयवहार के विरोध में उन्होंने कई बार अनशन किया। स्वतंत्रता के बाद अरुणा जी १९४८ में कांग्रेस छोड़कर सोशलिस्ट पार्टी में शामिल हो गईं। १९६४ में वे एक बार फिर कांग्रेस से जुड़ गईं। १९५८ में दिल्ली नगर निगम की प्रथम महापौर चुनी गईं। जीवन का बड़ा वक्त उन्होंने ‘पैट्रियट’ व ‘लिंक’ सरीखे प्रकाशनों में लगाया।
अरुणा जी का पहले नाम अरुणा गांगुली था। हरियाणा के कालका में एक संभ्रांत बंगाली ब्राह्मण परिवार में उनका जन्म १६ जुलाई, १९०९ को हुआ था। कुशाग्र बुद्धि अरुणा लाहौर और नैनीताल से पढ़ाई पूरी करने के बाद कोलकाता के गोखले मेमोरियल कॉलेज में पढ़ाने लगीं। १९२८ में १९ वर्ष की आयु में उन्होंने इलाहाबाद के कांग्रेसी नेता आसफ अली से प्रेम विवाह किया, जिनका धर्म ही अलग नहीं था, उम्र में भी २१ वर्ष का फासला था। यह दंपति आपसी पैâसले से ताउम्र नि:संतान रहा। आसफ अली को उड़ीसा का राज्यपाल होने के साथ स्विट्जरलैंड और ‌अमेरिका में हिंदुस्थान का पहला राजदूत होने का गौरव भी हासिल है। २९ जुलाई, १९९६ को स्वतंत्रता संग्राम की इस वीरांगना का देहांत हो गया। लेनिन शांति पुरस्कार, ऑर्डर ऑफ लेनिन, जवाहर लाल नेहरू सम्मान और पद्मविभूषण के बाद उन्हें १९९७ में देश के सर्वोच्च नागरिक सम्मान ‘भारत रत्न’ से भी सम्मानित किया गया। नई दिल्ली की एक प्रमुख सड़क आज भी उनकी याद दिलाती है।

 

विमल मिश्र, मुंबई
(लेखक ‘नवभारत टाइम्स’ के पूर्व नगर
संपादक, वरिष्ठ पत्रकार और स्तंभकार हैं।)

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