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शिलालेख : जातियां सामाजिक एकता में बाधक हैं

 हृदयनारायण दीक्षित
हम असीम अस्तित्व के अंग हैं इसलिए लघु से महत होने की संभावनाएं भी हैं। हम शरीरधारी हैं। हमारी पहली सीमा शरीर है। इससे संबंधित बड़ी सीमा परिवार है। परिवार के बाद बड़ी संस्था है समाज। परिवार तक ही सीमित रहे तो समाज से अलग रहते हैं। यूरोप और अमेरिकी समाज परिवार से भी पहले वाली सीमा में है। वे व्यक्तिवादी हैं। भारत में परिवार और समाज से राष्ट्रभाव का विकास हुआ है। भारतीय पूर्वज राष्ट्र की सीमा के बाहर भी आत्मीय रूप में संवेदनशील थे। ‘वसुधैव कुटुंबकम’ की अनुभूति भारतीय चिंतन से ही निकली है। इसके बाद आकाश, सौरमंडल और फिर असीम ब्रह्म विस्तार का आच्छादन। यहां इकाई अनंत हो गई है। मैं इन पंक्तियों का लेखक भारतीय समाज की जाति सच्चाई के अनुसार, ब्राह्मण जाति का हूं। जाति सीमा को तोड़कर बाहर आऊं तो मानव समाज का हिस्सा हूं। हम इसे और गहरे से अनुभव करते हैं तो मैं विश्व मानवता का सदस्य हूं। इसे और पैâलाता हूं तो प्रकृति का भाग हूं। अब मैं कीट, पतिंगे और वनस्पति जगत का भी सहोदर हूं। मैं अंतत: ब्रह्मांड का हिस्सा हूं।
संपूर्णता पूर्ण है। पूर्ण में पूर्ण घटाओ तो पूर्ण ही बचता है। संपूर्णता आनंदित करती है। संसार का ज्ञान जरूरी है, लेकिन हम स्वयं से पूरा परिचित नहीं हैं। आखिरकार हम हैं कौन? प्रश्न का उत्तर आसान नहीं है। हम ही प्रश्नकर्ता हैं और हम ही उत्तरदाता। मोटे तौर पर हम सबका उत्तर होगा कि हम मनुष्य हैं। मनुष्य का अर्थ है मनु। मनु का उल्लेख ऋग्वेद में है, अथर्ववेद में भी है। दर्शन अनुभूति में हम चेतन हैं। लोकव्यवहार में हम भारतीय अमेरिकी या जापानी वगैरह भी हैं। हम विराट प्रकृति का अंग है। आस्तिकता के कारण हम जरथुस्त्र, ईशा, इस्लाम या भारतीय धर्म के अंग हैं। हमारे बहिरंग परिचय के अनेक रूप हैं। हम पिता हैं, पुत्र हैं। अनेक रिश्तों के बंधन में हैं। अनेक परिचय हैं हमारे। हम किसी न किसी जाति के भी हैं और जाति में होने का कारण हमारा किसी समूह विशेष में जन्म लेना ही है।
भारत में जातियां सामाजिक यथार्थ हैं। वे न होतीं तो अच्छा होता। जातियां सामाजिक एकता में बाधक हैं। जाति सामाजिक सच्चाई है। जातियां जन्मना हैं। कोई भी व्यक्ति स्वयं अपनी जाति नहीं चुन सकता। इनका ढांचा सोपान क्रम में है। इसके शीर्ष वाली जातियों का सम्मान रहा है। सीढ़ी में निचली जातियां काफी लंबे समय से सामाजिक सम्मान से भी वंचित रही हैं। डॉ. आंबेडकर ने कोलंबिया विश्वविद्यालय (१९१६) में ‘जातियों की उत्पत्ति और संरचना’ पर शोध प्रस्तुत किया था। उन्होंने कहा था ‘प्रत्येक समाज में भिन्न-भिन्न वर्ग होते हैं। बौद्धिक आर्थिक या अन्य कारणों से बने वर्ग अपना अस्तित्व भी रखते हैं। भारत में भी ऐसे ही वर्ग रहे होंगे। पुरानी भारतीय वर्ण व्यवस्था को कर्मश्रम आधारित वर्ग कहा जा सकता है। पहले वर्ण जन्मना नहीं थे। वर्ग भी जन्मना नहीं होते। डॉ. आंबेडकर ने कहा कि किसी समय किसी एक वर्ग वर्ण ने अपने ही वर्ण वर्ग में विवाह करने का बंधन लगाया होगा। वे कहते हैं कि जाति के उद्भव के अध्ययन से हमें इस प्रश्न का उत्तर मिलना चाहिए कि वह वर्ग कौन सा था, जिसने अपने लिए बाड़ा खड़ा किया। मैं इसका प्रत्यक्ष नहीं अप्रत्यक्ष उत्तर ही दे सकता हूं। हिंदू समाज में कुछ प्रथाएं सर्वव्यापी थीं। अपने समस्त प्रतिबंधों के साथ वे ब्राह्मणों में थीं। ब्राह्मण वर्ग ने स्वयं की घेराबंदी जाति रूप में क्यों की? यह एक भिन्न प्रश्न है? प्रश्न उचित है। ऋग्वैदिक काल में जाति वर्ण नहीं थे। उत्तर वैदिक काल में वर्ण हैं। वर्ण जन्मना नहीं थे इसलिए जाति नहीं थी। जाति की जन्मतिथि खोजना असंभव है। जाति बंधन मजबूत है।
ब्राह्मणों पर जाति प्रथा लागू करने के आरोप अक्सर लगाए जाते हैं। डॉ. आंबेडकर ने इसी शोध में कहा था, ‘जाति व्यवस्था का प्रसार और विकास एक विशाल कार्य था। ब्राह्मण अनेक गलतियां करने के दोषी रहे हों, कह सकता हूं कि वे ऐसे थे, लेकिन जाति व्यवस्था को गैर ब्राह्मणों पर लाद सकने की क्षमता उनमें नहीं थी।’ सही बात है। कोई शक्तिशाली राजव्यवस्था भी अपने शासित लोगों के बड़े वर्ग समूह को जन्मना किसी जाति में ही रहने के लिए विवश नहीं कर सकती। जाति का उद्भव पूर्वजों के अचेत कर्म का परिणाम है। सामाजिक परिवर्तन की निरंतरता में जन्मना जातियां बनीं, लेकिन हमारे सचेत पूर्वजों ने जाति समाप्ति के लिए अथक श्रम भी किए। गांधी, डॉ. आंबेडकर, डॉ. हेडगेवार, डॉ. लोहिया, ज्योतिबा फुले और विवेकानंद, दयानंद ने भी जाति भेद के विरोध में नवजागरण किया।
राजनीति को सामाजिक परिवर्तन का काम भी करना चाहिए। जाति का कोई औचित्य नहीं है। भारत को जाति भेदविहीन समाज बनाना होगा। ‘सामाजिक, आर्थिक और राजनैतिक न्याय’ भारतीय संविधान की उद्देशिका के मूल तत्व है। राजनैतिक न्याय ने मताधिकार दिया है। सरकारें विधायिका के प्रति जवाबदेह हैं। प्रशासन उत्तरदायी नहीं है। वंचित वर्गों के लिए बहुत सारा नीति निर्माण हुआ है तो भी प्रशासनिक संवेदनहीनता के चलते सामाजिक न्याय दूर है। दार्शनिक क्षेत्र में भारत विश्व प्रतिष्ठत है। यहां कण-कण में परमात्मा की बातें कही जाती हैं, लेकिन जन-जन में जाति है और जाति भेद भी है। जाति की चर्चा से बचा नहीं जा सकता। सामाजिक यथार्थ को स्वीकार करना चाहिए। एकात्मवादी विचार आदर्श है। इस विचार के लिए विमर्श भी जरूरी है। परंपरा के साथ विज्ञान और जाति मुक्त चिंता के साथ जाति समूहों का व्यथा चिंतन भी होना चाहिए। जाति अतिक्रमण का यही मार्ग है। यह काम सभी सामाजिक कार्यकर्ताओं, बुद्धिजीवियों और धर्म गुरुओं को भी करना चाहिए।
(लेखक उत्तर प्रदेश विधानसभा के
पूर्व अध्यक्ष और वरिष्ठ साहित्यकार हैं।)

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