मां मनुष्य जाति की आदि अनादि अनुभूति है। हिंदुस्थान के सभी क्षेत्रों में मां स्वरूप देवी की उपासना होती है। कुछ विद्वान देवी उपासना को तंत्र क्षेत्र का विकास मानते हैं। लेकिन सच ऐसा नहीं है। आदिम मनुष्य प्रकृति के प्रति आत्मीय रहा है। उसके चित्त में आत्मभाव के साथ प्रकृति को मां स्वरूप में देखने का भाव प्राचीन काल से आधुनिक काल तक गतिशील है। मनुष्य और प्रकृति के बीच अंतर्विरोध भी रहे हैं। अंतर्विरोधों से संघर्ष करते हुए मनुष्य अपने जीवन को सुखपूर्ण बनाने के प्रयास में जुटा रहा है। उसने प्रकृति की दिव्य शक्तियों को देवता या देवी माना। देवी उपासना की शुरुआत का आदि केंद्र हिंदुस्थान है। ऋग्वेद में भी देवी उपासना के अनेक सूत्र हैं। हिंदू भूमि में ऋग्वेद की रचना के पहले ही देवी की उपासना रही है। प्रकृति की शक्तियों को माता के रूप में देखने और आदर देने की परंपरा प्राचीन है। ऋग्वेद में पृथ्वी माता है। गाय माता है। अवध्य और पूज्य है। वाणी वाक् शक्ति की देवी है। ऋग्वेद में वाणी देवी पर अलग से सूक्त हैं। सरस्वती माता है। वन की एक देवी अरण्यानी भी है। यजुर्वेद में लक्ष्मी, अम्बिका आदि देवियां हैं। माता के प्रति हिंदुस्थान में अगाध श्रद्धा रही है और है। इसलिए भारत को भी माता कहा जाता है। वैदिक ग्रंथों में जल भी माता के रूप में उपास्य है। सृष्टि का विकास किसी एक आदि तत्व से हुआ है। विकासवादी सिद्धांत के जनक चार्ल्स डार्विन के अनुसार सृष्टि का उद्भव जल से हुआ। ईसा पूर्व छठी शताब्दी में यूनानी दार्शनिक थेल्स ने भी सृष्टि का उद्भव जल से बताया। इसके बहुत पहले ऋग्वेद में जल को जल माताएं ‘आप: मातरम्‘ कहा गया है। कहा गया है कि सृष्टि के स्थावर जंगम का जन्म जलमाताओं से हुआ। इडा, सरस्वती और मही नाम की तीन देवियों का उल्लेख ऋग्वेद (५.५.८) में है। यहां रात्रि भी मां है। प्रकृति सृष्टि के प्रत्येक अणु परमाणु में देवी रूप मां की उपस्थिति है।
जम्मू-कश्मीर के गांदरबल में माता खीरभवानी का मंदिर है। यहां प्रति वर्ष भारी संख्या में हिंदू तीर्थ यात्रा पर जाते हैं। खीर भवानी मेले का इतिहास बहुत पुराना है। यहां ज्येष्ठ माह (जून – जुलाई) में लाखों श्रद्धालु जुटते हैं। जून का महीना है। श्रद्धालु उत्सवी हो गए हैं। जम्मू-कश्मीर के निवासियों के लिए यह एक जीवंत उत्सव है। आतंकवादी हमलों की चुनौती के बावजूद भी हिंदू समुदाय देवी के दर्शनार्थ जाता है। इस दिव्य स्थान के प्रति अटूट विश्वास रहा है। देवी के प्रति यह श्रद्धा आश्चर्यजनक है। श्रद्धालु हिंदू आतंकवादी वारदातों की परवाह न करते हुए खीरभवानी मंदिर की वार्षिक तीर्थ यात्रा पर जाते हैं। हिंदू समुदाय के मन में देवी के प्रति अविचल निष्ठा है और अखंड श्रद्धा। भारतीय देवतंत्र में देवी मां की अनुभूति गहरी है। वैदिक काल से लेकर आधुनिक काल तक देवी श्रद्धा की भाव भूमि राष्ट्रव्यापी है। देवी के अनेक नाम व रूप हैं। ऋग्वेद (१०.१२७) में रात्रि भी उपास्य देवी हैं। कहते हैं, ‘रात्रि मां के आंचल में पैरों से चलने वाले, पंखों से उड़ने वाले कीट पतंगे और पथिक सुखपूर्वक सोते हैं।’ ऋग्वेद में रात्रि को मरण रहित बताया गया है। अथर्ववेद में रात्रि देवी को संवत्सर की प्रतिमा कहा गया है। हिंदुस्थान का सबसे बड़ा महानगर पहले बंबई नाम से अभिज्ञात था। अब मुंबई है। माना जाता है कि मुंबा देवी के नाम पर ही इस विशाल महानगर का नाम मुंबई पड़ा। मुंबा देवी के दर्शन के लिए प्रति वर्ष लाखों की भीड़ आती है।
ऋग्वेद में वाणी देवी हैं। वे सर्वव्यापी हैं। वे कहती हैं, ‘मैं रूद्र, वसु, आदित्य और विश्व देवों के रूप में विचरण करती हूं। मैं मित्र वरुण इंद्र, अग्नि और अश्विनी कुमारों को धारण करती हूं। मैं सृष्टि के सभी प्रपंचों, रूपों व भावों में स्थित हूं। मेरी सहायता से ही प्राणी अन्न खाते हैं। देखते हैं। सांस लेते हैं। सुनते हैं। मैं जिसे चाहती हूं उसे शक्तिशाली स्त्रोता, ऋषि और बुद्धिमान बनती हूं। मेरा निवास जल में है। वहीं से मैं सारे संसार में विस्तृत होती हूं।’ सही बात है। जल सृष्टि का आदि तत्व है। दिव्यता का आदिकेंद्र है। देवी वहीं हैं। वे अव्यक्त से व्यक्त होकर सृष्टि बनती हैं और बनाती हैं। विष्णु का एक नाम नारायण भी है। नारायण का अर्थ है जल का विशाल क्षेत्र। ऋग्वेद का यही पूरा सूक्त अथर्ववेद में भी दोहराया गया है। अथर्ववेद में अमावस्या और पूर्णिमा भी देवी हैं।
देवी दिव्यता हैं। दिव्यता अनंत रूपों आयामों में प्रकट होती है। दिव्यता के रूप नाम अनेक हैं। कहीं दुर्गा हैं तो कहीं वाराही। खड्गधारिणी, शूलधारिणी और वैष्णवी। दुर्गा सप्तशती देवी उपासना का प्रतिष्ठित ग्रंथ है। पुराण का हिस्सा है। सप्तशती के ग्यारहवें अध्याय में देवी कहती हैं, ‘जब जब दानवीय बाधाएं व्यवस्था नष्ट करती हैं तब-तब मैं अवतार लेती हूं और दानवों का संहार करती हूं।’ गीता के कृष्ण भी यही बात कहते हैं, ‘जब जब धर्म की ग्लानि होती है तब तब मैं धर्म की संस्थापना हेतु अवतार लेता हूं।’ शाश्वत सत्य एक है। उसका कथन और आस्वश्ति एक है। देश काल के प्रभाव में शब्द और अभिव्यक्ति बदल जाते हैं। हड़प्पा की खुदाई में देवी पूजा के तमाम साक्ष्य मिले थे। पत्थर की मोहरों पर देवी का अंकन अनुमानित किया गया। मौर्य काल के पुरातात्विक साक्ष्यों में देवी अभयदान की मुद्रा में हैं। महाभारत के भीष्म पर्व में अर्जुन की दुर्गा स्तुति का उल्लेख है। विराट पर्व में युधिष्ठिर भी देवी की पूजा करते हैं। महाकवि निराला ने ‘राम की शक्ति पूजा‘ लिखी। दुर्गा सप्तशती सर्वाधिक लोकप्रिय है। नवरात्रि उत्सवों में इसका पाठ होता है। इसकी कथा मजेदार है। यहां एक राजा हैं सुरथ। वे मेधा ऋषि के आश्रम में पहुंचे। समाधि नाम का वैश्य है। उसने परिश्रमपूर्वक धन जुटाया था। घर वालों ने उसे घर से निकाल दिया। वह भी ऋषि आश्रम पहुंचा। सुरथ नाम में रथ गति का प्रतीक है और सु सुंदरता का। लेकिन सुरथ सुगति नहीं पा सके। समाधि का अर्थ मन से मुक्ति होता है। लेकिन यहां समाधि नाम के वैश्य धन की चिंता में पीड़ित और परेशान हैं। मेधा ऋषि हैं। मेधा हमेशा ऋषि ही बनाती है। मेधा देवी का रूप और तत्व जानते हैं। मेधा दोनों को देवी रहस्य बताते हैं। ऋषि के प्रबोधन से सुरथ सुरथी बनते हैं और समाधि नाम के वैश्य समाधि का वास्तविक अर्थ जान जाते हैं। सप्तशती के पाठ की परंपरा है। पाठ अध्ययन नहीं होता। अध्ययन में बुद्धि साझी होती है। सोच-विचार भी चलता है। लेकिन पाठ में हृदय लगता है। तब शब्द अपना मूल अर्थ खो देते हैं। शब्दों के गर्भ में छिपी अक्षर शक्ति प्रकट होती है। यही बात देवी मंदिरों के दर्शन में भी है। देखने में मूर्ति पत्थर है। दर्शन में मूर्ति के पीछे विराजमान अव्यक्त दिखाई पड़ता है। हिंदुस्थानी अनुभूति में देव प्रतीति की प्राचीन परंपरा है। इस अनुभूति को दुर्गा, लक्ष्मी, वाराही, काली सहित कोई नाम दीजिए। नाम से फर्क नहीं पड़ता। सर्वत्र एक ही ऊर्जा है। भीतर, बाहर। ऊपर, नीचे, आगे, पीछे।
हृदयनारायण दीक्षित
(लेखक उत्तर प्रदेश विधानसभा के पूर्व अध्यक्ष और वरिष्ठ साहित्यकार हैं।)