मुख्यपृष्ठस्तंभशिलालेख : दुख का कारण अज्ञान है!

शिलालेख : दुख का कारण अज्ञान है!

•  हृदयनारायण दीक्षित
योग दर्शन हिंदुस्थान का प्राचीन विज्ञान है। हिंदुस्थान का यह दर्शन अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर प्रतिष्ठित हो चुका है। लेकिन मार्शल ने ‘मोहनजोदड़ो एंड दि इंडस सिविलाइजेशन‘ में लिखा है, ‘शैव मत के समान योग का उद्भव भी आर्यों से पहले की आबादी में हुआ था। काव्यों के युग के पहले आर्य धर्म में उसकी कोई महत्वपूर्ण भूमिका नहीं थी।’ मार्शल सिंधु सभ्यता को प्राचीन और वैदिक सभ्यता को परवर्ती मानते थे। उनके मत में योग सिंधु सभ्यता की देन है। लेकिन योग वैदिक सभ्यता के समय ही फल फूल रहा था। योग दर्शन के बीज ऋग्वेद में हैं। योग का ध्येय वस्तुत: जाग्रत बुद्धि और कैवल्य है और जाग्रत बुद्धि की चर्चा वैदिक साहित्य में सर्वत्र मिलती है। ऋग्वेद (५.४४.१४) में कहा गया है, ‘जो जागे हुए हैं ऋचाएं उनकी कामना करती हैं।’ वैदिक काल के प्रतिष्ठित देवता इंद्र की स्तुति है, ‘हे इंद्र आपने जन्मते ही मन स्थिर किया।’ अस्थिर मन और मन की चंचलता दुख देती है। स्थिर चित्त योग की विशेष उपलब्धि है। पतंजलि योग सूत्र (२) में चित्त वृद्धि के निरोध को योग कहा गया है। मार्शल की आधी बात ठीक है कि हड़प्पा सभ्यता (१५००-२००० ईसा पूर्व) के लोग योग से परिचित थे। इसके पहले वैदिक काल में योग की साधनाएं थीं। योग हजारों वर्ष प्राचीन हिंदुस्थानी विज्ञान है। हिंदुस्थान से यही शब्द यूरोप पहुंचा। इसे योक् कहा गया। लंदन विश्वविद्यालय के प्रोफेसर ए. एल. बासम ने ‘दि वंडर दैट वाज इंडिया‘ में लिखा है, ‘योग पश्चिम में सुविदित है और अंग्रेजी शब्द योक् से संबंधित है। अंग्रेजी शब्द योक् का अर्थ जुवा, संधि, जोड़ना और बांधना है।
पतंजलि ने ‘योगसूत्र‘ नामक महान ग्रंथ लिखा। दुख संपूर्ण मानवता की समस्या है। भारतीय दार्शनिक चिंतन में संसार दुखपूर्ण है। बुद्ध ने भी संसार को दुखमय बताया है। बुद्ध ने चार आर्य सत्य बताए थे। शब्द ‘आर्य सत्य‘ ध्यान देने योग्य है। आर्य हिंदुस्थान के प्राचीन अभिजन हैं। इसीलिए ये सत्य आर्य सत्य हैं। बुद्ध के अनुसार, पहला सत्य है कि संसार दुखपूर्ण है। दूसरा सत्य है कि दुखों का कारण होता है। तीसरा सत्य है कि दुखों का निरोध भी हो सकता है और चैथा सत्य दुखों के अंत का मार्ग भी है। पतंजलि ने चित्त वृत्तियों को दुख का कारण बताया है। पश्चिमी दृष्टि में दुख के कारण आर्थिक होते हैं। इस चिंतन में भोग सुख है। ज्यादा भोग ज्यादा सुख है। इस दृष्टि में मनुष्य उपभोक्ता इकाई है। लेकिन हिंदुस्थानी दर्शन में दुख का कारण अज्ञान है। पतंजलि के अनुसार सभी दुखों का मूल चित्त वृत्ति है। सिग्मंड प्रâायड ने मनोकामना को सभी क्रियाओं का केंद्र माना था। प्रâायड ने काम इच्छा को ‘लिविडो‘ कहा था। उन्होंने तीन तरह के मन बताए थे। वह हैं, क्षिप्त, विक्षिप्त और मूढ़। लेकिन पतंजलि ने मूढ़, क्षिप्त, विक्षिप्त, एकाग्र और निरुद्ध सहित चित्त की पांच वृत्तियां बताई हैं। उन्होंने चित्त की वृत्तियों की समाप्ति को योग का लक्ष्य बताया – ‘योगश्चित्तवृत्तिनिरोध:‘ योगसूत्र का पहला सूत्र ‘अथयोगानुशासन‘ महत्वपूर्ण है। मनुष्य का चित्त असाधारण संरचना है। यह द्रव्य या पदार्थ नहीं है। सीधी बात है कि शरीर कष्ट में हो तो मन दुखी होता है। मन दुखी हो तो शरीर को कष्ट होता है। अपमान के अवसर पर मन को दुख होता है। ताप शरीर में आता है।
योग सूत्रों में चित्त वृत्तियों को ही सुख-दुख और क्लेश आनंद का कारण बताया गया है। योग दर्शन तनाव दूर करने का मार्ग है। पतंजलि के आसन प्राणायाम और ध्यान के माध्यम से आत्मदर्शन कराते हैं। आसन और प्राणायाम प्रचलित शब्द हैं। ध्यान एकाग्रता है। पतंजलि ने यहां साधक को खुली छूट दी है। जिसको जैसा ठीक लगे वह वैसे विषय पर ध्यान लगाए – यथाभिमत ध्याना द्वा। (योगसूत्र समाधि पाद ३९) वे ईश्वर का विकल्प भी देते हैं। कहते हैं, ‘अथवा ईश्वर पर प्राण लगाएं‘। दुनिया के किसी भी दर्शन में ईश्वर की परिभाषा नहीं है। पतंजलि ने ईश्वर की परिभाषा की, ‘क्लेश, कर्म, कर्मफल, और वासना से असम्बद्ध चेतना विशेष ईश्वर है।’ (वही २४) यहां ईश्वर संसार का कर्ता धर्ता नहीं है। योग सूत्रों में ईश्वर एक विशेष चेतना है। ईश्वर की परिभाषा के बाद पतंजलि ने कहा है, ‘समय के पार होने के कारण वह गुरुओं का भी गुरु है।’ यहां समय के पार शब्द ध्यान देने योग्य हैं। सुख और दुख समय के भीतर होते हैं। जीवन भी समय के भीतर चलता है। ईश्वर समय के पार हैं। पतंजलि ने जाग्रत बुद्धि के लिए ऋतम्भरा शब्द का प्रयोग किया है – ऋतम्भरा तत्र प्रज्ञा। योग के इस चरण में बुद्धि प्रकृति के स्वाभाविक प्रवाह, लय, छंद और रस में एक हो जाती है। ऋतम्भरा, प्रज्ञा अस्तित्व की बुद्धि है। ऋतम्भरा शब्द में ऋत वैदिक वांग्मय में उल्लिखित प्रकृति का संविधान है। प्रत्येक मनुष्य की बुद्धि अलग अलग होती है। लेकिन एक बुद्धि अस्तित्व की भी होती है। ऋतम्भरा प्रज्ञा पूरे अस्तित्व की बुद्धि है। पतंजलि इसे भी हटाकर समाधि का लक्ष्य प्राप्त कराने के लिए वैराग्य और सतत् अभ्यास पर जोर देते हैं। अभ्यास योग तत्परता है और वैराग्य अनासक्त भाव।
हिंदुस्थान का लोक जीवन योग शब्द से भरा पूरा है। किसी व्यक्ति या पदार्थ से अनायास जुड़ना संयोग है। अलग हो जाना वियोग है। किसी व्यक्ति वस्तु को सहायक बनाने का अनुष्ठान उपयोग है। उसे प्रयुक्त करना प्रयोग है। शक्ति का जवाबी योग प्रतियोग है। उत्पादन का काम उद्योग है। शक्ति और वस्तु का गलत प्रयोग दुरूपयोग है। ज्ञान को मुक्ति का उपकरण बनाना ज्ञान योग है। भक्ति में निष्ठा भक्ति योग है। कर्म प्रधानता कर्मयोग है। संसार को माया और ब्रह्म को सत्य जानना सन्यास योग है। ज्योतिष विज्ञान में ग्रहों की विशेष स्थिति गृह योग है। आयुर्वेद में औषधियों को एक साथ मिलाना भी योग है। गणित में अंकों का जोड़ भी योग है। गीता के अनुसार कर्म की कुशलता भी योग है। पतंजलि ने योग के माध्यम से मुक्ति प्राप्ति का नया मार्ग दिया है। तमाम प्रकार के आसन और प्राणायाम योग के प्रारंभिक चरण हैं। सामान्य योग साधना से शरीर शुद्धि हो जाती है। योग में तमाम असाध्य रोगों का भी उपचार है। लेकिन योग का मूल उद्देश्य समाधि है। समाधि के भी दो आयाम हैं। पहला सबीज समाधि और दूसरा निर्बीज समाधि। सबीज समाधि की दशा में योग साधक संसार के प्रति अनासक्त हो जाता है। लेकिन स्वयं के प्रति सजग रहता है। बीज जस का तस रहता है। निर्बीज समाधि में वह अविभाज्य ब्रह्माण्ड का हिस्सा हो जाता है।
(लेखक उत्तर प्रदेश विधानसभा के
पूर्व अध्यक्ष और वरिष्ठ साहित्यकार हैं।)

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