हृदयनारायण दीक्षित
नैतिकता विशिष्ट जीवन मूल्य है। सभ्यता के प्रारंभ से ही नैतिक शिक्षा का विकास भी होता रहा है। मनुष्य ने मिल-जुल कर रहने की आवश्यकता अनुभव की थी। इतिहास के पाषाण काल से लेकर अब तक लगातार नए भूक्षेत्रों और चिंतन अनुशासन की खोज जारी है। एक यूनानी इतिहासकार ग्रोट ने लिखा था कि किसी देश में संविधान सर्वोच्च सत्ता होता है। लोग गलत कामों से डरते हैं इसलिए वे कानून तोड़ने का साहस नहीं कर पाते। समाज के बड़े हिस्से के अंत:करण में नैतिक निष्ठा रहती है। भारत में नैतिकता आदर्श मानी जाती है तो भी सम्यक नैतिकता का पालन एक वर्ग द्वारा नहीं किया जाता। ‘नैतिक’ निष्ठा वाले समाज परंपराएं आगे बढ़ाते रहते हैं। संप्रति चिकित्सा क्षेत्र में नैतिकता के सवाल उठ रहे हैं। औषधियों के निर्माता अपने ब्रांड को श्रेष्ठ और अन्य ब्रांडों को बेकार बताते हैं। कुछ समय पहले पतंजलि कंपनी द्वारा नए उत्पादों की घोषणा की गई। अनेक असाध्य रोगों के ठीक हो जाने का दावा किया गया। इनमें तमाम स्वस्थ हुए होंगे और तमाम लोगों को चिकित्सा से निराशा हुई होगी। ऐसे तमाम मामले न्यायालयों का विषय बने। `इंडियन मेडिकल एसोसिएशन’ ने भी अपना पक्ष रखा। चिकित्सक अपनी-अपनी चिकित्सा पद्धतियों का प्रचार करने और सही ठहराने के प्रयास में रहे। यह अनुचित था।
चिकित्सा उत्पाद साधारण दवा नहीं होते। अनुशासन में रहते हुए इनका सेवन उपयोगी होता है। औद्योगिक प्रबंधनों द्वारा दिए गए विज्ञापन और प्रचार से रोगी प्रभावित होते हैं। एक अंग्रेजी अखबार के मुताबिक, राष्ट्रीय उपभोक्ता विवाद निवारण आयोग (एन.सी.डी.आर.सी) ने हाल ही में जॉनसन एंड जॉनसन लिमिटेड पर ३५ लाख रुपए का जुर्माना लगाया है। आरोप है कि कंपनी द्वारा निर्मित दोषपूर्ण हिप रिप्लेसमेंट डिवाइस से रोगी को तमाम जटिलताएं झेलनी पड़ी। भारत में चिकित्सक को भगवान जैसा आदर मिलता रहा है। तमाम चिकित्सक ऐसे होते भी हैं। उनमें सेवा भाव रहता है। वे अपने विषय के विशेषज्ञ भी होते हैं। मैं न्यूरोलॉजी के अंतर्राष्ट्रीय विशेषज्ञ पद्मश्री डॉक्टर सुनील प्रधान (लखनऊ) का उल्लेख कर सकता हूं। वे रोगी के प्रति ममत्व भाव रखते हैं और अपने कर्तव्य के प्रति अटूट निष्ठा। वे विरल हैं। सरल हैं। कठोर हैं और मुलायम भी हैं। ऐसे तमाम चिकित्सक अपनी जिम्मेदारी का निर्वहन करते हैं। कोरोना महामारी के दौरान उनके कर्तव्य प्रशंसनीय रहे हैं, मगर एक बड़ा हिस्सा चिकित्सा को उत्कृष्ट सेवा धर्म नहीं मानता। सरकारों द्वारा संचालित अस्पताल पर्याप्त नहीं हैं। इन अस्पतालों की व्यवस्था संतोषजनक नहीं है। रोगी के साथ प्रेमपूर्ण व्यवहार नहीं होता। इसका दुष्परिणाम सामने है। महानगरों में हजारों निजी अस्पताल बढ़े हैं। इनमें रोगियों को अच्छा व्यवहार मिलता है, लेकिन भारी भरकम पैसा वसूली साधारण बात है। निजी अस्पताल अच्छी आमदनी देने वाला व्यवसाय हो गया है। सो निजी अस्पतालों की भीड़ है।
चिकित्सा मानवता के प्रति प्रत्यक्ष सेवाभाव है। चिकित्सकों का `हिप्पोक्रेटिक ओथ’ दिलाई जाती है। उच्च आदर्शों के लिए दीक्षांत समारोह के दौरान यह शपथ दोहराने की परंपरा है। शपथ के प्रत्येक वाक्य का संबंध चिकित्सा नैतिकता से है। परोपकार भी इस शपथ का भाग है। इसमें उपचार के दौरान रोगी के स्वास्थ्य और कल्याण की प्राथमिकता सम्मिलित है। चिकित्सा संबंधी उपकरण आपूर्ति करने वाली कंपनी को भी इस नैतिकता से जोड़ा गया है। रोगी से संबंधित जानकारी की सुरक्षा और गोपनीयता सुनिश्चित करना इस नैतिकता का हिस्सा है। चिकित्सकों और मरीजों के बीच विश्वास की कमी का उल्लेख है। सरकारी अस्पतालों में कार्यरत तमाम डॉक्टर घर पर निजी प्रैक्टिस करते हैं। मरीज के परिजन परेशान रहते हैं। आधुनिक चिकित्सा पद्धति वैज्ञानिक है। लेकिन शपथ संकल्प में देवताओं और देवियों का उल्लेख भी किया गया है। अपोलो यूनान के देवता हैं। उनके साथ प्रतिष्ठित देवियों को भी गिना गया है। वे जुड़वा हैं। शपथ का संबंध निजी संकल्प से होता है। चिकित्सा क्षेत्र में प्रगाढ़ संकल्प की आवश्यकता है। विधायक, सांसद, मंत्री और न्यायपालिका में भी शुद्ध अंत:करण से काम करने की शपथ ली जाती है, लेकिन शपथ के परिणामों से सारा देश अवगत है।
ऋग्वेद के रचना काल में तमाम रोगों और औषधियों की जानकारी थी। ऋग्वेद (१०.९७) में कहते हैं, ‘औषधियों का ज्ञान तीन युग पहले ही हो चुका था।’ ऋषि बताते हैं, ‘औषधियां कई तरह की हैं। कुछ फल वाली, कुछ फूल वाली। औषधियों का प्रभाव शरीर पर पड़ता है।’ मैकडनल और कीथ ने वैदिक इंडेक्स में बताया है, ‘भारतवासियों की रुचि शरीर रचना से संबंधित विज्ञान की तरफ थी। ऋग्वेद में अश्विनी कुमारों के चिकित्सा ज्ञान का उल्लेख है। अपोलो की तरह वे भी जुड़वा हैं। उन्होंने अनेक ऋषियों को स्वस्थ किया है। आधुनिक सभ्यता के प्रभाव में मानसिक रोग बढ़े हैं। चरक संहिता में कहते हैं कि ईर्ष्या, शोक, भय और क्रोध आदि मनोविकार हैं। जब मन और बुद्धि का योग या अतियोग या मिथ्यायोग होता है तब रोग पैदा होते हैं। चरक संहिता में कहा गया है कि, ‘चिकित्सक सेवा भाव से कम करें। राजा से चिकित्सा का पूरा खर्च लेना चाहिए, लेकिन धनाभाव से पीड़ित गरीब से धन लोलुपता नहीं दिखानी चाहिए। लिखा है कि अगर ज्यादा धन लेना ही वैद्य का उद्देश्य बन बन रहा हो तो चिकित्सक को लोहे के गरम गोले अपने मुंह में डाल लेना चाहिए। यहां चरक कठोर दिखाई पड़ते हैं। लेकिन जीवन मृत्यु के महत्वपूर्ण प्रश्नों के समाधान में कठोरता जरूरी है। चिकित्सा क्षेत्र में नैतिकता का प्रश्न महत्वपूर्ण है।
(लेखक उत्तर प्रदेश विधानसभा के
पूर्व अध्यक्ष और वरिष्ठ साहित्यकार हैं।)