प्रमोद भार्गव
शिवपुरी (मध्य प्रदेश)
मध्य प्रदेश में तीसरे चरण में तीन लोकसभा सीटों पर चुनाव हुआ है, इसमें प्रदेश के तीन दिग्गजों की किस्मत दांव पर है। पूर्व मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान विदिशा से उम्मीदवार हैं, उन्हें कांग्रेस के पूर्व सांसद और सिंधिया परिवार के एक समय नुमाइंदे रहे प्रताप भानु शर्मा टक्कर दे रहे हैं। शर्मा सिंधिया ट्रस्ट का भी काम देखते रहे हैं। अतएव कहा जा सकता है कि वे सिंधियाओं के विश्वसनीय रहे हैं, लेकिन २०१९ में जब ज्योतिरादित्य सिंधिया गुना लोकसभा सीट हारने के बाद भाजपा में आए, तब शर्मा ने सिंधिया के साथ जाने से इनकार कर दिया था। दूसरे दिग्गज पूर्व मुख्यमंत्री दिग्विजय सिंह राजगढ़ से चुनाव लड़ रहे हैं, उनका मुकाबला भाजपा के दो बार से सांसद रोडमल नागर से है। दिग्विजय सिंह की दोहरी चिंताएं हैं। एक तरफ तो वे नागर को पराजय का मुख दिखाना चाहते हैं, वहीं दूसरी तरफ गुना से भाजपा प्रत्याशी ज्योतिरादित्य सिंधिया को कैसे हटाएं यह भी है, क्योंकि सिंधिया खानदान से दिग्विजय की राजनीतिक शत्रुता हमेशा बनी रही है। तीसरे दिग्गज ज्योतिरादित्य सिंधिया हैं, जो अपनी परंपरागत सीट गुना-शिवपुरी से मैदान में है। अपने पिता माधवराव सिंधिया की मृत्यु के बाद वे यहां से चार बार चुनाव जीते, किंतु २०१९ में अपने ही नुमांइदे के.पी. यादव से मुंह की खानी पड़ गई। इसी हार का परिणाम रहा कि सिंधिया भाजपा का रुख कर गए। दूध का जला छाछ भी फूंक-फूंककर पीता है, वही स्थिति सिंधिया की है। वे खुद तो दिन-रात प्रचार में लगे ही हैं, अपनी पत्नी और बेटे को भी प्रचार में जुटाए रखा। उनका प्रचार तमाशाई अंदाज में रहा। मां-बेटे ने कभी चूल्हे पर रोटी बनाई और खाई तो कभी बाजार में कचौड़ी-समोसा खाने के साथ दिखाने को वस्तुओं की खरीदारी भी की। अब तीनों उम्मीदवारों की किस्मत ईवीएम में बंद हो चुकी है, देखें मतदाता क्या गुल खिलाता है।
शिवराज सिंह चौहान की राह सबसे आसान है। संभव है, प्रदेश में वे सर्वाधिक मतों से जीतकर रिकॉर्ड कायम करें, क्योंकि लाडली लक्ष्मियों और बहनों का समर्थन तो उन्हें मिल ही रहा है, उनके परिजन भी शिवराज के साथ हैं। ७७ साल के कांग्रेस के कद्दावर नेता दिग्विजय सिंह ने इस चुनाव में यह साबित कर दिया है कि एक उम्रदराज व्यक्ति भी कितनी समझदारी, लगन, निष्ठा और परिश्रम से चुनाव लड़ सकता है। भाजपा उम्मीदवार रोडमल नागर उनके सामने पासंग भर नहीं है। उनकी जो भी ताकत है, वह नरेंद्र मोदी और भाजपा हैं। दस साल के संसदीय कार्यकाल में नागर के पास ऐसा कोई अनूठा विकास कार्य नहीं है, जिसे वह कह सकें कि यह उन्हीं के बूते जमीन पर उतरा है इसीलिए उन्हें मतदाताओं से कहना पड़ा रहा है कि मुझे दिया वोट प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को जाएगा। यह चुनाव सनातन और गैर-सनातियों के बीच है। भगवान श्रीराम की स्थापना हो चुकी है, अब यह रास्ता और आगे जाएगा। यह सीट इसलिए भी चर्चा में है, क्योंकि जब केंद्रीय गृहमंत्री अमित शाह राजगढ़ चुनावी सभा में आए थे, तब उन्होंने दिग्विजय सिंह पर गहरा कटाक्ष किया था, ‘आशिक का जनाजा है, जरा धूमधाम से निकले।‘ दिग्विजय ने इस तंज के जवाब में कहा है कि ‘भाजपा उनकी मृत्यु की कामना कर रही है। सनातन हिंदुओं की मौत के बाद जनाजा नहीं, अर्थी निकलती है।‘ दरअसल, इस बार दिग्विजय इतनी सावधानी से चुनाव लड़ रहे हैं कि भाजपाइयों को बात का बतंगड़ बनाने का मौका नहीं मिल पा रहा है। अनावश्यक मुद्दा नहीं बन पाने के कारण दिग्विजय सिंह रणनीतिक लड़ाई में नागर से बहुत आगे निकलते दिखाई दे रहे हैं, जबकि यहां भाजपा की ताकत तो लगी ही है, राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ने भी अपने कार्यकर्ताओं को इस संसदीय क्षेत्र के चप्पे-चप्पे पर उतार दिया है। साफ है, नागर की हैसियत तो दिग्विजय से मुकाबला करने की है ही नहीं। मोदी की गारंटी और राम मंदिर की सौगात ही ऐसे दो कारण हैं, जो दिग्विजय को नुकसान पहुंचा सकते हैं।
गुना-शिवपुरी लोकसभा सीट से भाजपा उम्मीदवार के रूप में पहली बार किस्मत आजमा रहे ज्योतिरादित्य सिंधिया कांग्रेस उम्मीदवार राव यादवेंद्र सिंह यादव से भले ही बढ़त में आगे जाते दिख रहे हों, लेकिन उनकी चिंताएं बदस्तूर हैं। इस लोकसभा की कोलारस, अशोकनगर, मुंगावली, चंदेरी और पिछोर ऐसी विधानसभाएं हैं, जहां यादव मतों की संख्या अच्छी-खासी है। हालांकि, सिंधिया ने प्रत्याशीr के रूप में घोषणा होने से पहले ही यादवी समीकरण को अपने पक्ष में करने की अनेक कवायदें की हैं। बावजूद ऐसा लग नहीं रहा कि एक बड़ा मत-प्रतिशत भाजपा की झोली में जाएगा! इसी चिंता के चलते सिंधिया, उनकी पत्नी प्रियदर्शनी राजे और बेटे महाआर्यमन ने सबसे ज्यादा समय इन्हीं विधानसभाओं के यादव बहुल क्षेत्रों में खपाया है। गुना जिले की आदिवासी बहुल सीट बमौरी में भी कड़ा मुकाबला दिखाई दे रहा है। दरअसल, यहां से सिंधिया निष्ठ महेंद्र सिंह सिसोदिया बीते पांच साल विधायक रहे थे। २०२३ के विधानसभा चुनाव में कांग्रेस के युवा ऋषि अग्रवाल ने उन्हें करारी शिकस्त दे दी, जबकि सिंधिया ने सिसोदिया का खूब प्रचार किया था। इस क्षेत्र की जनता सिसोदिया से बेहद खफा है इसीलिए वह नहीं चाहती कि सिंधिया को वोट देकर सिसोदिया की ताकत की पुनर्बहाली की जाए। इन गड्डों को भरने की दृष्टि से सिंधिया ने रणनीति जरूर चली है, लेकिन वह कितनी कारगर होती है, यह नतीजे ही तय करेंगे। दरअसल, यहां से बहुजन समाज पार्टी के उम्मीदवार धनीराम हैं। धनीराम सिंधिया के ही उम्मीदवार माने जा रहे हैं। अतएव कहा जा रहा है कि बसपा का वोट आखिर में भाजपा के खाते में जाएगा। यदि ऐसा वाकई हुआ तो सिंधिया यादव वोटों के नुकसान की भरपाई कर लेंगे। इसके अलावा सिंधिया की गुना, शिवपुरी, कोलारस और पिछोर में स्थिति मजबूत बताई जा रही है। यहां से मिली बढ़त उन्हें जीत के किनारे तक पहुंचा सकती है ?
दिग्विजय सिंह की रणनीति के चलते ही सिंधिया के खिलाफ अरुण यादव को टिकट नहीं मिलने दिया, क्योंकि उन पर बाहरी होने का चस्पा लग जाता और चुनाव एकतरफा होकर सिंधिया के पक्ष में चला जाता। दिग्विजय ने अशोकनगर के कांग्रेस के कद्दावर नेता राव यादवेंद्र सिंह यादव को टिकट दिलाया। यादवेंद्र के पिता राव देशराज सिंह भाजपा के तीन बार विधायक रहे हैं। ज्योतिरादित्य सिंधिया के विरुद्ध भी वे दो बार लोकसभा का चुनाव लड़कर हार चुके थे। देशराज की मृत्यु के बाद यादवेंद्र कांग्रेस में आ गए और दिग्विजय ने उनकी मजबूत जातीय स्थिति का आकलन कर सिंधिया के विरुद्ध मैदान में उतार दिया। अब देखते है कि ऊंट किस करवट बैठने जा रहा है।
(लेखक, वरिष्ठ साहित्यकार और पत्रकार हैं।)