श्रीकिशोर शाही
कहते हैं दिल्ली की सत्ता का रास्ता यूपी और बिहार से जाता है। इसका कारण है कि दोनों राज्यों में लोकसभा की कुल १२० सीटें हैं। ऐसे में अगर किसी पार्टी का वहां वर्चस्व कायम हो जाता है तो दिल्ली की राह आसान हो जाती है। पिछले चुनाव में यूपी-बिहार में एनडीए का प्रदर्शन अच्छा रहा था मगर भाजपा के अड़ियल रवैये के कारण उसके सहयोगी एक-एक करके दूर होते चले गए, जिससे उसके सामने मुश्किल खड़ी हो गई थी। ओमप्रकाश राजभर, जयंत चौधरी, नीतिश कुमार, उपेंद्र कुशवाहा, चिराग पासवान आदि के भाजपा से दूर होने पर २०२४ के चुनाव के लिए मुश्किलें खड़ी हो गई थीं। ऐसे में अबकी बार ४०० पार तो छोड़िए बहुमत भी पार होना मुश्किल हो गया है। ऐसा इसलिए क्योंकि देश के अन्य राज्यों में भी भाजपा ने अपने सहयोगियों के साथ सौतेला व्यवहार किया, जिससे वे दूर होते चले गए और एनडीए का कुनबा सिमटता चला गया। इस बात को समझते हुए भाजपा ने फिर से इनके सामने घुटने टेके और मान-मनौव्वल करके इन्हें अपने पाले में लाने लगी।
रामविलास पासवान बिहार में दलितों का एक बड़ा चेहरा थे। १९७७ में उन्होंने हाजीपुर से काफी बड़े अंतराल से जीतकर जीत का रिकॉर्ड बना दिया था। रामविलास राजनीति के माहिर खिलाड़ी माने जाते थे और दिल्ली में सरकार किसी भी दल की हो, इससे उन्हें कोई फर्क नहीं पड़ता था। वे हर सरकार में मंत्री बन ही जाते थे। २०१९ के चुनाव में भी रामविलास ने कुल ६ सीटों पर जीत दर्ज की थी। इनमें उनके परिवार का ही दबदबा था। उनके अलावा बेटा चिराग पासवान, भाई पशुपति पारस और रामचंद्र पासवान ने जीत दर्ज की थी। रामविलास के निधन के बाद चिराग ने थोड़ा तेवर तल्ख किए तो भाजपा ने एलजेपी में फूट डलवा दी। बेटे चिराग अकेले रह गए और पार्टी पर पशुपति पारस का कब्जा हो गया। भाजपा ने पशुपति पारस को मंत्री बना दिया और बयान बहादुर चिराग को किनारे लगा दिया। तब से चिराग घुट-घुटकर जी रहे थे। उनका राजनीतिक करियर हिचकोले खा रहा था। फिर आया २०२४ का लोकसभा चुनाव और भाजपा को ब्रह्मज्ञान हुआ कि बेटे और भाई में फर्क होता है। चिराग और उनकी मां को अपने रामविलास की सहानुभूति लहर का पूरा फायदा मिलना तय देखकर भाजपा ने पलटी मारी। उसने चिराग को तरजीह देनी शुरू कर दी और इससे पशुपति पारस खुद को ठगा हुआ महसूस करने लगे। उनका राजनीतिक अस्तित्व ही हिचकोले खाने लगा। भाजपा की हालत थी कि ‘मतलब निकल गया तो पहचानते नहीं…’, इसे भांपकर पशुपति पारस ने केंद्र सरकार से इस्तीफा दे दिया। उनकी हालत फिलहाल ‘कहा भी न जाए और सहा भी न जाए’ सरीखा है। यह इसी से समझा जा सकता है कि उन्होंने इस्तीफा तो दिया पर पीएम मोदी की आलोचना नहीं बल्कि तारीफ की। भाजपा का हर नेता अब चिराग को बड़ा नेता बनाने में जुटा हुआ है। भाजपा इस तरह का खेल जिस राज्य में भी मौका मिलता है, जरूर करती है। महाराष्ट्र में भाजपा ने शिवसेना और राकांपा के साथ इसी तरह का खेल किया है। अब यही खेल उसने बिहार में पशुपति पारस के साथ कर दिया है। कल तक जो पशुपति एलजेपी के कमांडर थे, अब वहां चिराग आसीन हो चुके हैं। इस तरह भाजपा की तोड़-फोड़ राजनीति का एक और उदाहरण हमारे सामने आ गया है। राजनीतिक पंडितों का मानना है कि भाजपा नीतिश कुमार की पार्टी जदयू के साथ भी यह खेल भविष्य में कर सकती है।
रामविलास के निधन के बाद चिराग ने थोड़ा तेवर तल्ख किए तो भाजपा ने एलजेपी में फूट डलवा दी। बेटे चिराग अकेले रह गए और पार्टी पर पशुपति पारस का कब्जा हो गया। भाजपा ने पशुपति पारस को मंत्री बना दिया और बयान बहादुर चिराग को किनारे लगा दिया। तब से चिराग घुट-घुटकर जी रहे थे।’