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इस्लाम की बात : ईद-ए-मिलाद-उन-नबी विशेष: ‘प्रॉफेट फॉर ऑल’ पैगंबर सबके लिए

सैयद सलमान
मुंबई

इस समय पूरे देश में गणेशोत्सव की धूम है। ‘गणेश विसर्जन’ और ‘ईद-ए-मिलाद-उन-नबी’ की तारीखों का लगभग एक साथ आना प्रशासन के लिए तनाव का कारण बना हुआ था। मुसलमानों ने गणेश भक्तों की भावनाओं का ख्याल रखते हुए ईद-ए-मिलाद-उन-नबी के जुलूस की तारीख दो दिन बढ़ा दी यानी १७ सितंबर को विसर्जन के अगले दिन १८ सितंबर को ईद-ए-मिलाद-उन-नबी का जुलूस विभिन्न क्षेत्रों में निकाला जाएगा। गणेश भक्तों सहित अनेक गणेश मंडलों और प्रशासन ने मुसलमानों की इस पहल को सकारात्मक कदम बताते हुए इसकी भूरि-भूरि प्रशंसा की है। दरअसल, यही पैगंबर मुहम्मद साहब की शिक्षा का सार है कि पूरे समाज की भावनाओं का सम्मान किया जाए। पिछले कुछ वर्षों से मुस्लिम समाज के अनेक बुद्धिजीवी, उलेमा इस दिशा में काम कर रहे हैं। ‘प्रॉफेट फॉर ऑल’ नाम से एक मुहिम चलाई जा रही है। पिछले दिनों इस्लाम जिमखाना में आयोजित एक महत्वपूर्ण बैठक में नाचीज भी आमंत्रित था, लेकिन किन्हीं अपरिहार्य कारणों से उपस्थिति दर्ज न करा पाने का अफसोस है। हां, यह देख-सुनकर खुशी जरूर हुई कि सभी धर्मों के कई प्रतिष्ठित व्यक्ति इस बैठक में शामिल थे और पैगंबर मोहम्मद साहब के जीवन से जुड़ी बातों पर खुलकर चर्चा हुई। यहां उन नामों का उल्लेख टाल रहा हूं। जब काम बड़ा हो तो नाम की कोई अहमियत नहीं रह जाती। एक अंदेशा यह भी होता कि किसी का नाम छूट जाए तो नाराजगी होती है और जिस पैगंबर मोहम्मद साहब के संदर्भ में यह मुहिम चल रही है, उनकी शख्सियत में उच्च नैतिकता, सहिष्णुता, विनम्रता और दयालुता जैसी कई विशेषताएं थीं। ऐसे में परिवर्तन की शुरुआत अपने भीतर से होनी चाहिए।
‘प्रॉफेट फॉर ऑल’ अभियान का उद्देश्य अपने हमवतन भाइयों तक मोहम्मद साहब के सही संदेशों को पहुंचाना है अर्थात उनके जीवन के व्यक्तिगत, सामूहिक और सामाजिक पहलुओं पर प्रकाश डाला जाए। उन्हें तथ्यों के साथ बताया जाए कि पैगंबर की शिक्षा का संबंध किसी जाति, रंग, नस्ल या धर्म की परवाह किए बिना संपूर्ण मानव समाज से है। अपने देश के मिश्रित समाज में सदियों से मुस्लिम समाज अपने हमवतन भाइयों के साथ मिलकर रह रहा है, लेकिन इसे दुर्भाग्य ही कहा जाएगा कि पैगंबर मोहम्मद साहब के जीवन के विभिन्न पहलुओं से उन्हें अवगत नहीं कराया गया। हालांकि, उन्हें ‘रहमतुल-लिल-आलमीन’ (पूरी दुनिया के लिए रहमत) के रूप में संदर्भित करने का आधार पवित्र कुरआन की कई आयतों में मिलता है। उदाहरण के लिए, सूरह अल-अंबिया (अल-कुरआन २१:१०७) ‘और हमने तुम्हें सारी दुनिया के लिए रहमत बनाकर भेजा।’ यह आयत स्पष्ट रूप से बताती है कि पैगंबर का उद्देश्य केवल अरब या मुसलमानों के लिए नहीं, बल्कि सभी मानव जाति में दया और करुणा पैâलाना था। उन्होंने एकेश्वरवाद और नैतिक जीवन जीने का संदेश दिया यानी ईश्वर सबका एक है। उन्होंने गैर-मुस्लिमों के साथ शांतिपूर्ण सह-अस्तित्व बनाए रखा। उनकी बैठकें मस्जिदों के अहाते में हुआ करती थीं।
मोहम्मद साहब ने मानवता के कल्याण के लिए अल्लाह द्वारा भेजा गया सार्वभौमिक संदेश दिया। कुरआन और इस्लामी शिक्षा मोहम्मद साहब के संदेश को आज भी प्रासंगिक साबित करती है। उन्होंने गरीबों, कमजोरों और पीड़ितों के प्रति दया और सहानुभूति का संदेश देते हुए जाति, वर्ण और धर्म के भेदभाव को खत्म करके समानता का आदर्श स्थापित किया। समाज में सौहार्द और सद्भाव बना रहे, इसके लिए उन्होंने नैतिक और आध्यात्मिक जीवन जीने का संदेश दिया। उन्होंने सच्चाई, ईमानदारी और त्याग जैसे मूल्यों पर जोर दिया। आज के भौतिकवादी युग में इन मूल्यों का पालन करना महत्वपूर्ण है। मोहम्मद साहब ने शिक्षा को बहुत महत्व दिया और ज्ञान हासिल करना प्रत्येक मुस्लिम पर फर्ज बताया। आज के युग में शिक्षा का महत्व और भी बढ़ गया है। उन्होंने सामाजिक न्याय स्थापित करने पर जोर दिया। आज भी दुनिया में असमानता और अन्याय का सामना करना पड़ता है। एकता, नैतिकता, शिक्षा और सामाजिक न्याय जैसे मूल्यों को अपनाकर हम एक बेहतर और न्यायपूर्ण समाज का निर्माण कर सकते हैं।
सांप्रदायिक शक्तियों ने सामाजिक समरसता बिगाड़ने की पूरी कोशिश की है, लेकिन बहुसंख्यक और मुस्लिम समाज के बीच प्रेम और भाईचारा बड़े पैमाने पर आज भी कायम है। हालांकि, युवाओं में बढ़ती नफरत चिंता का विषय है। मुसलमानों ने कुरआन और मोहम्मद साहब को केवल अपने तक सीमित कर लिया है, जबकि युवाओं के बीच विभिन्न संस्कृतियों, धर्मों और भाषाओं की शिक्षा का आदान-प्रदान होना चाहिए। बहुसांस्कृतिक सिद्धांतों के साथ मिलकर मोहम्मद साहब के संदेश को विभिन्न कार्यशालाओं के माध्यम से प्रभावी ढंग से लागू किया जा सकता है, जिससे एक समावेशी और सहिष्णु समाज का निर्माण हो सके। ‘प्रॉफेट फॉर ऑल’ अभियान के माध्यम से जीवन के सभी क्षेत्रों से मुसलमानों और गैर-मुसलमानों को जोड़ने का प्रयास किया जा रहा है। इस पहल का स्वागत होना चाहिए। ‘ईद-ए-मिलाद-उन-नबी’ तभी सार्थक पर्व के रूप में उभरकर सामने आएगा, वरना यह केवल एक राजनीतिक संतुष्टि का जरिया मात्र कहलाएगा।
(लेखक मुंबई विश्वविद्यालय, गरवारे संस्थान के हिंदी पत्रकारिता विभाग में समन्वयक हैं। देश के प्रमुख प्रिंट और इलेक्ट्रॉनिक मीडिया से जुड़े वरिष्ठ पत्रकार और राजनीतिक विश्लेषक हैं।)

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