सैयद सलमान
मुंबई
कुरआन में कहा गया है कि मनुष्य पृथ्वी का खलीफा है, अर्थात वह पृथ्वी का संरक्षक और प्रबंधक है। इसका मतलब है कि मनुष्य को पृथ्वी के संसाधनों का दुरुपयोग नहीं करना चाहिए, बल्कि उसका संरक्षण करना चाहिए। इस्लाम में किसी भी चीज के अत्यधिक उपभोग और अपव्यय को बुरा माना जाता है। कुरआन में कहा गया है, ‘खाओ और पियो, लेकिन अति मत करो।’ यह शिक्षा मनुष्य को प्राकृतिक संसाधनों का बेहतर प्रबंधन करने के लिए प्रेरित करती है। यहां तक कि इंसान को भूख से एक तिहाई खाने को कहा गया है। बाकी के दो हिस्से हवा और पानी के लिए सुरक्षित रखना चाहिए।
पवित्र हज यात्रियों का मक्का-मदीना से लौटना जारी है। वहां से लौटनेवाले हाजी हजरात बता रहे हैं कि शिद्दत की गर्मी से बुरा हाल था। ठंडे देशों से हज करने आए लोगों की और बुरी हालत थी। उस से पहले दुबई जैसे देश में बेमौसम बरसात ने कहर ढाया था। गर्म देश में ऐसी बारिश की कल्पना मुश्किल थी। खाड़ी देशों की रेगिस्तानी जमीन यूं भी काफी गर्म होती है। उस गर्मी से बचने के लिए घर, दफ्तर, कार सहित हर जगह एसी चलाना मजबूरी और आदत दोनों बन गई है। बदलते पर्यावरण से हमारे देश सहित दुनिया का हर देश प्रभावित है। गर्मी, सर्दी, बरसात का समय पर न आना चिंता का कारण बनता जा रहा है। ग्रामीण इलाकों में भी गर्मी के मौसम में बेतहाशा कूलर और एसी का इस्तेमाल हो रहा है। इसके अतिरिक्त पूरे विश्व में पर्यावरण के साथ किया गया खिलवाड़ मानव जाति के लिए खतरा बनता जा रहा है। प्लास्टिक का उपयोग, गैजेट की बढ़ती मांग, पेड़ों की कटाई, पहाड़ों की छंटाई और समंदरों, नदियों, तालाब-पोखरों की भराई ने प्रकृति का संतुलन बिगाड़ दिया है। आनेवाला सबसे बड़ा खतरा ग्लोबल वॉर्मिंग है।
ग्लोबल वार्मिंग जैसे पर्यावरणीय मुद्दों पर इस्लाम में कई महत्वपूर्ण शिक्षाएं हैं, जो मनुष्य को पृथ्वी की रक्षा करने और इसके संसाधनों का बेहतर प्रबंधन करने के लिए प्रोत्साहित करती हैं। कुरआन में कहा गया है कि मनुष्य पृथ्वी का खलीफा है, अर्थात वह पृथ्वी का संरक्षक और प्रबंधक है। इसका मतलब है कि मनुष्य को पृथ्वी के संसाधनों का दुरुपयोग नहीं करना चाहिए, बल्कि उसका संरक्षण करना चाहिए। इस्लाम में किसी भी चीज के अत्यधिक उपभोग और अपव्यय को बुरा माना जाता है। कुरआन में कहा गया है, ‘खाओ और पियो, लेकिन अति मत करो।’ यह शिक्षा मनुष्य को प्राकृतिक संसाधनों का बेहतर प्रबंधन करने के लिए प्रेरित करती है। यहां तक कि इंसान को भूख से एक तिहाई खाने को कहा गया है। बाकी के दो हिस्से हवा और पानी के लिए सुरक्षित रखना चाहिए। डायटीशियन भी अब यही सलाह देते हैं। दरअसल, इस्लाम में प्रकृति का सम्मान करने का आह्वान किया जाता है। पैगंबर मोहम्मद साहब के अनुसार, ‘अगर किसी व्यक्ति के पास केवल एक टुकड़ा खाद्य हो और वह उसे तीन हिस्सों में बांटता है- एक हिस्सा अपने लिए, एक हिस्सा अपने परिवार के लिए और एक हिस्सा अपने पशुओं के लिए तो वह उनके लिए एक सज्जन व्यक्ति है’। इस्लाम की शिक्षा के अनुसार, कभी पेड़ या खेत की फसल को आग नहीं लगानी चाहिए और अगर ऐसा किया जाता है तो यह बड़ा गुनाह है। यहां तक कि अगर कोई किसी जंग की हालत में हो, तब भी अपने दुश्मन के खेत खलिहानों को नुकसान नहीं पहुंचाना चाहिए। यह शिक्षा मनुष्य को दयालु और उदार बनने के लिए प्रेरित करती है।
इस्लाम की शिक्षा कहती है कि प्रकृति का संरक्षण और संसाधनों का बेहतर प्रबंधन जरूरी है। इस दुनिया में इंसानों, जानवरों सभी के लिए अल्लाह ने जितनी भी नेमतें फरमाई हैं, उनकी हिफाजत करना इंसान का काम है। ग्लोबल वॉर्मिंग से लड़ने के लिए ज्यादा से ज्यादा पेड़ लगाने पर जोर देना चाहिए। इस्लाम की शिक्षा है कि कोई इंसान यदि पेड़ लगाएगा तो जब तक लोगों को इसका फायदा मिलता रहेगा, उसका सवाब उस शख्स को मिलता रहेगा। यानी यह एक तरह का सदका-ए-जारिया है, जो इंसान की मौत के बाद भी जारी रहता है। इस्लाम की सीख है कि अगर तुम किसी नदी के किनारे बैठे हो, तब भी तुम्हें पानी बर्बाद नहीं करना चाहिए। मजहब-ए-इस्लाम में कहा गया है कि तमाम नदियां, समंदर और नहरें सब अल्लाह की नेमतें हैं, जिनकी हिफाजत करना हम सबका बुनियादी फर्ज है। अब अगर इन पैमानों पर इस्लाम को मानने वालों को परखा जाए तो बहुत निराशाजनक स्थिति नजर आएगी।
प्रदूषण, वनों की कटाई और ग्लोबल वॉर्मिंग जैसे मुद्दों को लेकर लोगों को जागरूक करने की जिम्मेदारी मुसलमानों को उठानी होगी। हमारी सबसे बड़ी कमी यह रही है कि हम धरती को महज एक वस्तु मानते हैं। याद रहे, हम प्रकृति के प्रति जितने लालची होंगे, कयामत का दिन उतनी ही जल्दी आएगा। यही प्रलय के नाम से या प्राकृतिक आपदा के नाम से जाना जाता है। मुसलमानों को चाहिए कि ग्लोबल वॉर्मिंग से लड़ने में विश्व भर के वैज्ञानिकों, सरकारों, पर्यावरण संरक्षण के लिए काम कर रहे संगठनों का साथ देकर अपना फर्ज निभाएं। रमजान के रोजों की तरह ही मुसलमानों को पर्यावरण बचाने के लिए भी खुद पर काबू रखना फर्ज समझना चाहिए, नमाज की तरह ही पेड़ लगाने की आदत भी मुसलमानों को डालनी चाहिए। इतना योगदान तो इंसानियत के लिए दिया ही जाना चाहिए। आखिर इस्लाम इंसानियत की भलाई का ही तो संदेश देता है।
(लेखक मुंबई विश्वविद्यालय, गरवारे संस्थान के हिंदी पत्रकारिता विभाग में समन्वयक हैं। देश के प्रमुख प्रिंट और इलेक्ट्रॉनिक मीडिया से जुड़े वरिष्ठ पत्रकार और राजनीतिक विश्लेषक हैं।)