देश के विभिन्न हिस्सों में जारी हिंसा और दंगों की खबरों से अखबार भरे हुए हैं। टीवी मीडिया हो या सोशल मीडिया, जातीय-सांप्रदायिक तनाव की खबरों को अपने-अपने तरीके से परोस रहे हैं। माना यही जा रहा है कि लोकसभा चुनाव २०२४ और आगामी कुछ महीनों में कुछ राज्यों में होनेवाले चुनावों ने इस हिंसा और दंगों की पटकथा तैयार की है। मणिपुर, हरियाणा सहित महाराष्ट्र, बिहार, पश्चिम बंगाल और अन्य राज्यों में कहीं बड़े पैमाने पर तो कहीं छिटपुट हिंसा की घटनाएं हुई हैं। यानी यह स्पष्ट हो गया है कि सत्ता में वापसी के लिए नफरत और हिंसा का वही पुराना नुस्खा आजमाया जा रहा है। वोटों के ध्रुवीकरण के लिए सांप्रदायिक विभाजन और नफरत की राजनीति की अपनी नीति और कार्यक्रम को तेज करने के लिए केंद्र में सत्तासीन भाजपा और उसके सहयोगियों के पास कोई अन्य विकल्प नहीं बचा है। इस दिशा में पहले कदम के रूप में गुजरात मॉडल की तर्ज पर मणिपुर को नफरत की नवीनतम प्रयोगशाला में बदला गया। विभाजनकारी राजनीति को फिर से सक्रिय किया गया और मतदाताओं का ध्रुवीकरण मैतेई और कुकी के रूप में हुआ। अगला टारगेट हरियाणा बना। मेवात का नूंह और उसके बहाने गुरुग्राम समेत एनसीआर के कई इलाकों में हुई हिंसा उसी शृंखला का उदाहरण है। अल्पसंख्यक समूहों के खिलाफ घृणा अपराधों में व्यापक वृद्धि के बावजूद देश के प्रधानमंत्री खामोश हैं।
मणिपुर में पिछले तीन महीनों से ज्यादा समय से पैâली जातीय हिंसा के बावजूद प्रधानमंत्री मोदी ने राज्य का दौरा करने और लोगों को सांत्वना देने के लिए अब तक समय नहीं निकाला है। उनका फोकस मणिपुर की शांति के बजाय विपक्ष के अविश्वास प्रस्ताव को गिराने पर ज्यादा रहा। मणिपुर नरसंहार और महिला उत्पीड़न की निंदा न करना सरासर मोदी के रणनीतिकारों की साजिश को उजागर करता है। देश उस मुहाने पर खड़ा है जहां लोकाचार, मानवाधिकार और सामाजिक-राजनीतिक नैतिकता को अर्थहीन बना दिया गया है। याद कीजिए कर्नाटक, गुजरात, उत्तराखंड जैसे राज्यों में चुनाव से पहले अलग-अलग कारणों से मुख्यमंत्री बदल दिए गए थे। लेकिन मोदी ने हिंसाग्रस्त मणिपुर के मुख्यमंत्री बीरेन सिंह को ‘राजधर्म’ का पालन करने के लिए आगाह करना भी उचित नहीं समझा। उन्हें खुद २००२ में पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी ने यही सलाह दी थी। लेकिन जब उन्होंने खुद ही राजधर्म नहीं माना था तो किस मुंह से बीरेन सिंह से कहेंगे? सिर्फ दंगे-फसाद ही नहीं, देश की संसदीय गरिमा के साथ भी खिलवाड़ हो रहा है। संसद सदन निशिकांत दुबे और नारायण राणे जैसे गली-मोहल्ले के दादाओं की भाषा का साक्षी बना है।
इस देश का बड़ा हिंदू वर्ग देशहित में बड़ी और व्यापक सोच रखता है। वह मुसलमानों से नफरत तो नहीं करता, हां उसे कुछ शिकायतें जरूर हैं। उनकी शिकायतों पर गौर करना मुसलमानों की जिम्मेदारी भी है। चुनिंदा ही सही लेकिन कुछ मुसलमानों की अशिक्षा, उनकी कट्टरपंथी सोच, उनका बर्ताव सामाजिक ताने-बाने के लिए ठीक नहीं होता। मुसलमान इसके लिए कट्टरपंथी हिंदू संगठनों की ओर इशारा करते हैं, लेकिन उन्हें यह समझना होगा कि देश का बहुत बड़ा तबका ऐसे लोगों के साथ नहीं है। हिंदुस्थान की विशाल जनसंख्या विविध होने के साथ-साथ धर्मनिष्ठ भी है। हिंदुस्थान न केवल हिंदुओं, जैनियों और सिखों का घर है, बल्कि दुनिया की सबसे बड़ी आबादी में से एक मुसलमानों के साथ ही लाखों ईसाइयों और बौद्धों का भी घर है। यह सभी राष्ट्रीय स्तर पर अपने अस्तित्व के केंद्र में धार्मिक सहिष्णुता को देखते हैं। अधिकांश प्रमुख धार्मिक समूहों का मानना है कि ‘सच्चा हिंदुस्थानी’ होने के लिए सभी धर्मों का सम्मान करना जरूरी है और यहां की सहिष्णुता, धार्मिक और नागरिक मूल्यों की विरासत है।
जहां तक बात विभाजनकारी राजनीति की है तो एक साजिश के तहत सारे मसले कुछ इस तरह खड़े किए जा रहे हैं कि ध्रुवीकरण हो और अल्पसंख्यक अलग-थलग पड़ जाएं। मुस्लिम समाज को इसी बात को समझना है। मुस्लिम समुदाय की असल संपत्ति उसके कारीगर और शिल्पकार हैं। यहां के साहित्य, संगीत और वास्तुकला में मुसलमानों का योगदान अतुलनीय है। इन खूबियों के रहते हुए भी मुस्लिम रूढ़िवादी धार्मिक नेताओं ने मानवीय विकास को नजरअंदाज कर तुष्टीकरण को महत्व दिया है। ऐसे में चुनाव जीतने के लिए पैâलाई गई नफरत का जवाब देने के लिए मुसलमानों को ठोस रणनीति बनानी होगी। हिंसा किसी मसले का हल नहीं है। दंगे-फसाद की राजनीति से अलग अल्पसंख्यक और अलग पहचान का राग अलापने की बजाय सरकारी योजनाओं में भागीदारी पर उन्हें अपना ध्यान केंद्रित करना चाहिए। देश में तानाशाही और मनमानी के खिलाफ जो लोग लामबंद होकर आवाज उठा रहे हैं, उनके साथ खड़ा होना चाहिए। यही वक्त की सबसे बड़ी जरूरत है।
सैयद सलमान मुंबई
(लेखक मुंबई विश्वविद्यालय, गरवारे संस्थान के हिंदी पत्रकारिता विभाग में समन्वयक हैं। देश के प्रमुख प्रिंट और इलेक्ट्रॉनिक मीडिया से जुड़े वरिष्ठ पत्रकार और राजनीतिक विश्लेषक हैं।)